चुनाव के बाद भारत और दक्षिण एशिया के संबंधों में कई महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिल सकते हैं। दक्षिण एशिया के देश इस समय टकटकी लगाए भारतीय चुनाव परिणाम का इंतजार कर रहे हैं। दक्षिण एशिया का सबसे महत्वपूर्ण देश पाकिस्तान ( Pakistan) में इस चुनाव को लेकर रूचि सबसे अधिक है। पाकिस्तान के आमलोगों के साथ साथ वहां के बड़े राजनीतिक तबके की रूचि यह जानने में है कि भारत में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में वापसी करेंगे या नहीं। मीडिया रिपोर्ट्स में कहा जा रहा है कि पाकिस्तान के लोग यह नहीं चाहते कि भारत में मोदी की वापसी हो। इसकी वजह है कश्मीर और आतंकवाद पर भाजपा तथा पीएम मोदी का टफ स्टैंड। वहीं दक्षिण एशिया के दूसरे देश भी भारत के चुनाव परिणाम से सीधे-सीधे प्रभावित होंगे। बांग्लादेश की सरकार के साथ भारत के रिश्ते इस समय काफी बेहतर हैं। दोनों देश अपने पुराने मतभेद को भूलकर नई शुरुआत करने की ओर हैं। ऐसा ही कुछ श्रीलंका ( Sri Lanka ) और मालदीव ( Maldives ) के साथ है।
अगर श्रीलंका की बात करें तो हाल में ही हुए बम धमाकों में भारत ने इस पड़ोसी देश की हर तरह से मदद की। बीत दिनों श्रीलंका के राष्ट्रपति सिरिसेना ने भारत समर्थक नेता रानिल विक्रमसिंघे को हटाकर चीनी लॉबी के प्रमुख चेहरे महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री बना दिया। उसके बाद ऐसा लगा कि भारत विरोधी लॉबी वहां सक्रिय हो रही है। लेकिन अंत में सुप्रीम कोर्ट ने वहां की राजनीति में हस्तक्षेप किया और रानिल विक्रमसिंघे एक बार फिर पीएम बनने में सफल रहे। 2017 में श्रीलंका ने अपना हम्बनटोटा पोर्ट चीन को सौंप दिया था। हालांकि श्रीलंका में ज़्यादातर चीनी प्रोजेक्ट महिंदा राजपक्षे के काल में ही शुरू हुए थे। हालांकि अभी यह सपष्ट नहीं है कि चुनाव परिणाम के बाद भारत और श्रीलंका के समीकरण क्या होंगे। मोदी के पीएम बनने के बाद दोनों देशों के बीच संबंध कमोवेश सामान्य रहेंगे। अब बारी आती है मालदीव की।
मालदीव में जबसे यामीन अब्दुल्ला राष्ट्रपति पद से हटे हैं और इब्राहिम मोहम्म्मद सोलिह राष्ट्रपति बने हैं, भारत और मालदीव के संबंधों में एक नया दौर शुरू हुआ है। यामीन अब्दुल्ला चीन समर्थक माने जाते थे। उनके काल में चीन का दखल मालदीव की राजनीति में काफी बढ़ गया था और लगभग सभी महत्वपूर्ण व्यापारिक ठेके चीन को दिए जाने लगे थे। चीन की यह भी साजिश थी कि वह मालदीव के चुनाव में भी दखल दे और परिणाम अपने पक्ष में करा ले। लेकिन भारत ने अपनी कूटनीतिक चाल से न सिर्फ चीन के हर दांव को नाकाम किया बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि मालदीव में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हों।
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किस ओर जायेंगे नेपाल और म्यांमार
म्यांमार ( Myanmar ) और नेपाल ( Nepal ) भारत के दो पड़ोसी हिमालयी देश हैं। चीन लम्बे समय से इन देशों को अपने प्रभाव में लेने की कोशिश करता रहा है। चीन, नेपाल को कभी एलपीजी, कभी सस्ती बिजली ओर कभी सस्ते कर्ज के नाम पर फांसता रहा है। यूपीए सरकार में चीन, नेपाल की राजनीति में काफी हावी हो गया था लेकिन मोदी के पांच साल के कार्यकाल में कुछ हद तक चीन की गतिविधियों पर अंकुश लगा रहा। चीन ने जब भी नेपाल के आंतरिक मामलों में दखल दिया, भारत ने उसका तीव्र विरोध किया। हालांकि इस काल में दो बड़ी परियोजनाएं चीन ने नेपाल में शुरू कर दीं।
नेपाल पर भारत की संवेदनशीलता से चीन अच्छी तरह से परिचित है। इसलिए कहा जा सकता है कि अगर मोदी फिर से पीएम बने तो चीन कुछ हद तक नेपाल से दूरी बनाए रख सकता है। हालांकि इस बारे में निश्चित रूप से कुछ भी कहना मुश्किल है। म्यांमार की बात करें तो यहां भी चुनाव के बाद रिश्ते सामान्य बने रहने की उम्मीद है। म्यांमार में भी भारत के आगे चीन ही सबसे बड़ी समस्या है।
भारत का कहना है कि चीन म्यांमार में बुनियादी ढांचे के विकास की आड़ में साम्राज्यवादी नीतियां अपना रहा है। बता दें कि म्यांमार के रोहिंग्या शरणार्थियों का मसला दोनों देशों के बीच एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। भारत के कश्मीर राज्य में रोहिंग्या शरणार्थियों की अच्छी खासी तादात है। भारत इनको वापस म्यांमार भेजने की कोशिश कर रहा है। इस काम में भारत को कुछ हद तक सफलता भी मिली है। इसके साथ ही मोदी सरकार म्यांमार को उसके राज्यक्षेत्र में आतंकियों के खिलाफ आपरेशन चलाने के लिए राजी करने में सफल रही । साथ ही सीमा विवाद और उल्फा उग्रवादियों के मुद्दे पर भी भारत और म्यांमार एक दूसरे के साथ सहयोग कर रहे हैं।
चीन और पाकिस्तान पीएम मोदी के लिए दो बड़ी चुनौतियां रही हैं। भारत को लगता है कि चीन श्रीलंका, पाकिस्तान और म्यांमार में बंदरगाहों का विकास करके असल में भारत की घेरेबंदी कर रहा है। भारत का मानना है कि चीन इनकी आड़ में इन देशों में अपने सैनिक अड्डे स्थापित कर रहा है।
पीएम मोदी के काल में पाकिस्तान और भारत के रिश्ते उस समय चरम तनाव पर पहुँच गए थे, जब कश्मीर के बालाकोट में जैश-ए मोहम्मद के आतंकियों ने सीआरपीएफ के काफिले पर हमला किया। भारत ने इस हमले के जवाब में पाक के बालाकोट में स्थित आतंकी कैंपों पर हमला बोला और करीब 170 आतंकियों को मार डाला गया। उसके बाद पाकिस्तान ने भी भारत पर जवाबी कार्रवाई की और भारतीय पायलट अभिनंदन को पकड़ लिया था, जिन्हें दो दिन बाद रिहा कर दिया गया। दरअसल जब से मोदी पीएम बने थे, पाकिस्तान भारत के प्रति सशंकित रहा। आतंकवाद और कश्मीर मुद्दे पर भाजपा के टफ स्टैंड से पाकिस्तान हरदम डरा रहा।
पाकिस्तान को मोदी के पांच साल के कार्यकाल में भारत के हमले का डर सताता रहा। अब अगर मोदी फिर से सत्ता में आए तो कश्मीर और आतंकवाद करे मुद्दे पर पाकिस्तान को कई मुसीबतों का सामना करना पड़ सकता है। कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान के पीएम इमरान खान ( Imran Khan) ने इस बात की आशा जताई थी कि अगर मोदी सरकार आई तो कश्मीर के मुद्दे पर फैसला करने में आसानी होगी। अब यह तो वक्त ही बताएगा कि मोदी के दूसरे कार्यकाल में भारत के साथ पाकिस्तान के रिश्तों पर क्या असर होगा लेकिन इतना तय है कि पाकिस्तान से साथ पहले से चल रही मोदी सरकार की आक्रमक विदेश नीति जारी रहेगी।
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कितनी बड़ी चुनौती है चीन
अब बात करते हैं चीन की। मोदी सरकार के चीन के साथ रिश्ते खट्टे मीठे बने रहे। हालांकि डोकलाम और सीपीईसी के विवाद के बाद भारत और चीन दोनों ने अपने संबंधों में बहुत सुधार किया है । पीएम मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग बीते पांच वर्षों में सत्रह बार मिले। इन मुलाकातों का परिणाम है कि भारत और चीन के रिश्ते डोकलाम के बाद तेजी से सुधरे हैं। हालांकि अब भी दोनों देशों के बीच कई ऐसे मुद्दे हैं जो लम्बी अवधि के लिए चुनौतीपूर्ण साबित हो सकते हैं।
आने वाले दिनों में दोनों देशों के बीच सीपीईसी का मुद्दा बेहद अहम रहेगा। इसके अतिरिक्त सीमा विवाद भी एक बड़ा कारक होगा, जो इन देशों के संबंधों का भविष्य तय करेगा। हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि चीन सामरिक और आर्थिक सहयोग के मुद्दे पर पाकिस्तान के बेहद करीबी है। हालांकि मसूद अजहर मामले में चीन ने भारत का साथ देकर नई शुरुआत की उम्मीद जताई है। फिलहाल पिछले अनुभव को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि अगर मोदी पीएम बने तो चीन के साथ रिश्ते नरम-गरम बने रहेंगे। आशा जताई जा रही है कि मोदी और जिनपिंग के बीच जो केमेस्ट्री है, वह इन दोनों देशों के रिश्ते में सहायक होगी ।
अगर मोदी पीएम बने तो यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत और अमरीका के संबंधों पर उसका क्या असर होगा। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ( Donald Trump) ने अपने चुनाव अभियान में जमकर पीएम मोदी की तारीफ की थी ताकि उन्हें भारतीय समुदाय का वोट हासिल हो सके। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमरीका और भारत के संबंधों ने कई शानदार ऊँचाइयाँ हासिल कीं। हालांकि इस बीच दोनों देशों में मतभेद के कई बिंदुओं पर सामने आए लेकिन हर बार भारत अमरीका को मनाने में सफल रहा। भारत की सबसे बड़ी सफलता थी एनएसजी में सदस्यता के लिए अमरीका का समर्थन हासिल करना।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही है कि मोदी सरकार ने अपनी कूटनीति से अमरीका और रूस ( Russia) दोनो देशों से एक साथ मधुर संबंध बनाए रखा। भारत न सिर्फ अमरीका को रूस से एस 400 मिसाइल डील लेने के लिए राजी करने में सफल रहा बल्कि वह अमरीकी प्रतिबंधों की मार झेल रहे ईरान से तेल पर रियायत लेने में भी कामयाब रहा। यही नहीं, अमरीका ने खूंखार आतंकी मसूद अजहर ( Masood Azhar) के मुद्दे पर भारत का खुलकर साथ दिया। लेकिन आने वाले समय में भारत और अमरीका के रिश्ते चुनौतीपूर्ण होने वाले हैं।
अगर मोदी पीएम बनते हैं तो उन्हें अमरीका के साथ कई मोर्चों पर मोल-भाव करना पड़ा सकता है। ईरानी तेल और रूस के साथ हथियारों की डील उनके लिए बड़ी चुनौती बन सकती है। यही नहीं , अगले साल अमरीका में राष्ट्रपति पद के चुनाव हैं। अगर अमरीका में ट्रंप की सरकार बदल गई तो यह पीएम मोदी के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हो सकता है।
कहा जाता है कि यूरोपीय राजनीति पूरी दुनिया को प्रभावित करती है। जब तक नरेंद्र मोदी पीएम रहे भारत के साथ यूरोपीय देशों के संबंध स्थिर बने रहे। असल में जहाँ तक यूरोप का सवाल है, मोदी ने उसी नीति को फॉलो किया जो यूपीए के काल में रही। अपनी यूरोपीय देशों के प्रति नीति में पीएम मोदी ने कोई बड़ा बदलाव नहीं किया।
एक तरफ फ़्रांस के साथ पीएम मोदी ने सभी मतभेदों को नकारते हुए रफाल मुद्दे पर बड़ा समझौता किया। फ़्रांस और ब्रिटेन इस समय दो ऐसे देश हैं जो भारत के मुख्य सहयोगी कहे जा सकते हैं। दोनों देशों ने मसूद अजहर को आतंकी घोषित करने में भारत का पूरा सहयोग किया। जर्मनी भी भारत का एक मुख्य सहयोगी है। बीते पांच सालों में यूरोपीय संघ के साथ भारत के व्यापार में 121 लाख डॉलर की बढ़ोतरी हुई है। हालांकि भारत से इन देशों के निर्यात में गिरावट हुई है। मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती इस देशों का आतंकवाद और सुरक्षा परिषद में सदस्यता के मुद्दे पर समर्थन हासिल करना होगा।
खाड़ी देशों के साथ भारत के संबंध मोदी के पहले कार्यकाल में अच्छे बने रहे। यूएई, सऊदी अरब, क़तर, ईरान और इजराइल जैसे देशों के साथ भारत के मधुर संबंधों का दौर जारी रहा। यूएई ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को सबसे बड़े सम्मान जायद पदक से सम्मानित करने की घोषणा की । जायद पदक यूएई में राजाओं, राष्ट्रपतियों और राज्यों के प्रमुखों को दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है। पीएम मोदी को यह पुरस्कार दोनों देशों के बीच लंबे समय से चली आ रही मित्रता और संयुक्त रणनीतिक सहयोग को मजबूत करने में उनकी भूमिका के लिए दिया गया था।
उम्मीद लगाई जा रही है कि अगर मोदी फिर से पीएम बने तो उम्मीद यह भारत और यूएई के संबंधों में एक नया दौर के लकर आएगा। वहीं भारत और सऊदी अरब के संबंध पूरी कार्यकाल के दौरान सामान्य रहे। हालांकि सऊदी अरब ने पाकिस्तान के फेवर में कई निर्णय लिए लेकिन कुल मिलाकर भारत के साथ उनके संबंध ठीक-ठाक रहे। आने वाले दिनों में सऊदी अरब का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह देखना दिलचस्प होगा। खाड़ी में भारत के सबसे प्रमुख सहयोगी इजराइल के पीएम बेंजामिन नेतन्याहू ( Benjamin Netanyahu) पीएम मोदी के बेहद घनिष्ठ संबंध है। अब इस बात की आशा की जा सकती है कि मोदी के दूसरे कार्यकाल में दोनों देश बेहतर संबंधों की नई परिभाषा लिखेंगे।
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