कई पुस्तकों में इस घटना का जिक्र है। घटनाक्रम के अनुसार- भगत सिंह को फांसी देने की तैयारियां की जा रही थीं। चंद्रशेखर किसी भी हालत में भगत सिंह को छुड़ाना चाहते थे। इसी पर चर्चा करने के लिए वे अपने साथियों के साथ
आनंद भवन के पास अल्फ्रेड पार्क के पास बातचीत करने के लिए गए थे। तभी उनके पार्क में होने की सूचना अंग्रेजों को दे दी गई। अंग्रेज पुलिस ने दल-बल के साथ पार्क को घेर लिया। कई टुकड़ियां पार्क में भी घुस आईं। किसी का भी बचकर निकल पाना संभव नहीं था, लेकिन स्थिति को देखते हुए आजाद अकेले ही अंग्रेजी सिपाहिसों से भिड़ पड़े। अपनी पिस्टल से गोलिया चलाते हुए उन्होंने साथियों को बाहर निकाला।
एक पुस्तक के अनुसार- पिस्टल की आठ गोलिया खत्म होने पर उन्होंने आठ और गोलिया भरीं। उनका निशाना अचूक था। पंद्रह गोलियों से रुक-रुक कर उन्होंने अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दिया। हर गोली से एक सिपाही को ढेर करते रहे। जब एक गोली बच गई, तो उन्होंनें अपनी कसम पूरी करने के लिए उसे अपनी कनपट्टी पर मारकर देश के लिए बलिदान दे दिया।
उनके भय के कारण अंग्रेज भी पेड़ों की आड़ में छिपे हुए थे। अकेले क्रांतिकारी के कारण अंग्रेजों की टोली बेसहारा बनी हुई थी। आजाद की ओर से चलने वाली गोली बंद होने के काफी देर बाद तक अंग्रेज इंतजार करते रहे। इसके बाद भी सिपाही रेंगकर आजाद की ओर बढ़े। लेकिन उनके शरीर के पास जाने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी। उनके मृत शरीर पर भी गोलियां चलाई गईं, तब जाकर अंग्रेज आश्वस्त हुए कि वे अब गोली नहीं चलाएंगे।
मध्य प्रदेश के आदिवासी ग्राम धिमारपुरा भाबरा में 23 जुलाई, 1906 को जन्मे चंद्रशेखर आजाद का पूरा नाम चंद्रशेखर तिवारी था। मौजूदा समय में इस गांव का नाम आजादपुरा रखा गया। 1922 में क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल से मुलाकात के बाद चंद्रशेखर क्रांतिकारी बने। उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिकन क्रांतिकारी दल का पुनर्गठन किया और भगत सिंह, भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव, राजगुरु आदि के साथ मिलकर अंग्रेजी हुकूमत में दहशत फैला दी।