लोकसभा चुनाव में हार के बाद अखिलेश यादव को एक और झटका, इस बड़े नेता छोड़ी पार्टी, थामा लिया भाजपा का दामन
मुस्लिम वोट को संजाए रखने की चिंताअखिलेश को मुस्लिम वोट बैंक को संजोए रखने की चिंता सता रही है। सपा अपने परंपरागत वोट बैंक को संभालने के लिए संगठन में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की योजना बना रही है। इसके साथ ही अल्पसंख्यकों की समस्याओं को लेकर आंदोलन चलाने की भी तैयारी है। अखिलेश के पास मौजूदा वक्त में आजम खान को छोडकऱ कोई बड़ी मुस्लिम आवाज नहीं है। अभी पार्टी में कोई ऐसा मुस्लिम नेता भी नहीं दिखता जिसको बड़े स्तर पर खड़ा किया जा सके। हालांकि, सपा प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी कहते हैं कि “सपा में मुस्लिम पदाधिकारी बहुत पहले से हैं। वे लगातार हमसे जुड़ रहे हैं। कोई कहीं और नहीं जा रहा है। सपा हमेशा से अल्पसंख्यकों की हितैषी रही है।
अखिलेश यादव दलितों को भी अपने साथ नहीं जोड़ पाए। आज सपा में कोई दमदार दलित नेता भी नहीं है। बसपा से सपा में आए इंद्रजीत सरोज भी अपनी उपेक्षा से दुखी हैं। वे भी निष्क्रिय पड़े हैं। लिहाजा, अब अखिलेश के सामने कई तरह की चुनौतियां हैं, जिनसे उन्हें निपटना होगा।
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सपा का यादव वोटबैंक भी डांवाडोलसपा का यादव वोटबैंक भी मौजूदा वक्त में डगमगाता दिख रहा है। यादव बिरादरी के अन्य दलों में गए कई पुराने नेता भी सपा में वापसी के बजाय बसपा को ही पसंद कर रहे हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव की तरह राजनीति के चतुर खिलाड़ी नहीं हैं। उन्हेंं जमीनी हकीकत पता नहीं होती और वे सलाहकारों से घिरे रहते हैं। इसीलिए उनके पास सटीक सूचनाएं नहीं पहुंच पातीं। मुलायम जिस तरह से पार्टी कार्यकर्ताओं को सम्मान देते थे वह भाव भी अखिलेश में दिखता। दूसरे अखिलेश की उम्र भी अनुभवी नेताओं को जोड़े रखने में आड़े आ रही है। पुराने और खांटी नेता अखिलेश घुलमिल नहीं पाते। वे अपनी बात सहजता से उनके सामने नहीं रख पाते। यही वजह है कि कार्यकर्ता और कद्दावर नेता उनसे दूरी बना रहे हैं। सबसे बड़ी बात है कि सत्ता का मोह भी संस्कार की राजनीति पर भारी है। सत्ता पक्ष से मिलने वाली सुख सुविधाओं की वजह से भी बड़े नेता सपा का दामन छोड़ रहे हैं।