यूपी में ठाकुर बिरादरी का वर्चस्व- भारतीय सामाजिक संरचना में जो जातीय व्यवस्था है उसमें ठाकुर सवर्ण हैं। यह ब्राह्मणों के समकक्ष हैं। कहीं ऊपर तो कहीं ठीक नीचे आते हैं। इनकी पहचान योद्धा जाति के रूप में रही है। ठाकुर और राजपूत जातियां एक दूसरे की पर्याय हैं। लेकिन यूपी में प्राय: ठाकुर या क्षत्रिय ही पाए जाते हैं। उत्तर भारत के बड़े हिस्सों में यह बड़े भूस्वामी और काश्तकार रहे हैं। जमींदारी व्यवस्था में भू लगान वसूलने का ठेका इन्हीं के पास था इसलिए यह आज भी बड़े भू स्वामी हैं। समाजविज्ञानी कहते हैं खेती करना ठाकुरों का जातिगत व्यवसाय कभी नहीं रहा, लेकिन ज्यादा खेत होने की वजह से पीढ़ी दर पीढ़ी मजदूरों के जरिए खेती कराने का कौशल इनमें विकसित हुआ और यह समृद्ध किसान बने। समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास कहते हैं कि भारत के गांवों में किसी भी विशेष जाति के प्रभुत्व के लिए तीन महत्वपूर्ण आवश्यकताएं हैं वे हैं- भूमि स्वामित्व, अपेक्षाकृत उच्च अनुष्ठान की स्थिति और संख्यात्मक शक्ति। यह तीनों चीजों ठाकुरों के पास हैं। इसलिए वे सबल और निर्णायक भूमिका में हैं।
भूमि सुधार में भी रहे फायदे में-
उप्र में 1950 और 60 के दशक के बड़े पैमाने पर लैंड रिफॉर्म हुआ। इस दौरान ठाकुरों ने अपनी बहुत सी जमीन खो दी। विशेष रूप से पश्चिमी यूपी में, जहां हाथरस की घटना घटी। वहां पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह के नेतृत्व में बड़े जोर-शोर से लैंड रिफ़ॉर्म हुआ लेकिन, इसका लाभ अन्य पिछड़ी जातियों की तुलना में दलितों को बहुत मिला। अनुसूचित जातियां उच्च जातियों पर ही निर्भर बनी रहीं।
उप्र की राजनीति में आजादी के बाद से ही जमींदारों और रजवाड़ों का वर्चस्व रहा है। यूपी के पहले ठाकुर मुख्यमंत्री वीपी सिंह इलाहाबाद के मांडा के राज परिवार से थे। कुंडा निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय विधायक राजा भैया भदरी के राजपरिवार से आते हैं। देश के आठवें प्रधानमंत्री चंद्रशेखर भी बलिया के एक शक्तिशाली जमींदार परिवार से थे।
यूपी के राजनीतिक परिदृश्य में जाति हमेशा से केंद्रीय भूमिका में रही है। पिछले 30 सालों से तो यह पूरी तरह जातियों में ही सिमट कर रह गयी है। आजादी से लेकर 1960 तक यूपी में कांग्रेस हावी रही। तब इसका नेतृत्व ब्राह्मणों व ठाकुरों के हाथ में था। 1960 के दशक में चौधरी चरण सिंह के उदय के बाद लैंड रिफॉर्म और जातीय चेतना से जुड़े आंदोलन चले। तब ओबीसी जातियां यादव, जाट, कुर्मी और गुर्जरों का उभार हुआ और यूपी को वीपी सिंह और वीर बहादुर सिंह के रूप में पहला ठाकुर मुख्यमंत्री मिला। यूपी की राजनीति में तीसरा चरण 1990 के दशक से शुरू होता है। इस दौर में समाजवादी पार्टी (सपा) और बसपा का उदय हुआ। एक ने पिछड़ों को जोड़ा तो दूसरे ने दलितों को। इस दौर में भले ही निचली जातियों का थोड़ा उत्थान हुआ लेकिन ठाकुर-ब्राहण का प्रभाव कम नहीं हुआ।
ईपीडब्ल्यू (इकोनॉमिक और पॉलिटिकल वीकली) की रिपोर्ट के अनुसार यूपी में जब-जब सपा विधानसभा चुनाव जीतती है, तब-तब ठाकुर विधानसभा में सबसे बड़े समूह के रूप में उभरते हैं। वहीं बसपा के कार्यकाल में ब्राह्मणों का वर्चस्व होता है। ठाकुर और ब्राह्मण दोनों जातियां मिलकर भी कुल आबादी का 15 प्रतिशत ही हैं। लेकिन हर चुनाव में विधानसभा की 25 प्रतिशत से अधिक सीटों पर इन दो जातियों का ही कब्जा रहता है।
योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह आरोप लगाने वालों की कमी नहीं है कि एक बार फिर यूपी में ‘ठाकुरवाद’ की वापसी हो रही है। ब्राह्मणों ने इसकी खुलकर मुखालफत की है। यह भी आरोप हैं कि यूपी की नौकरशाही में ठाकुर हावी हैं। इस संबंध में समाज वैज्ञानिक बद्री नारायण कहते हैं जब प्रदेश में एक ठाकुर मुख्यमंत्री है, तो इस तरह के आरोप स्वाभाविक हैं, भले ही योगी एक सन्यासी हैं और जाति से ऊपर उठ चुके हैं। आरोप जो भी हों लेकिन यूपी में ठाकुर समुदाय के राजनीतिक प्रभुत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इतिहास गवाह है आजादी के बाद से यूपी में सत्ता में कोई भी हो ठाकुर हमेशा से प्रभावी रहे हैं।