हम सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी यानी SBSP के अध्यक्ष और जहूराबाद से विधायक ओम प्रकाश राजभर की बात कर रहे हैं।
पहले एक छोटा सा राजनीतिक किस्सा। इसी महीने दिल्ली में एमसीडी के चुनाव हुए। रिजल्ट के बाद कांग्रेस के 2 पार्षद AAP में शामिल हो गए। तस्वीरें आते ही सैकड़ों लोग इन पार्षदों के घर पहुंच गए और फैसला का विरोध किया। नतीजा ये हुआ कि दोनों को कांग्रेस में ही रहने का ऐलान कैमरे पर आकर करना पड़ा।
सपा पर पर्चा कैंसिल के आरोप से शुरू हुई बयानबाजी
मैनपुरी, खतौली, रामपुर में उपचुनाव लड़ने की घोषणा ओम प्रकाश राजभर ने की थी। मैनपुरी में उनके कैंडिडेट का पर्चा कैंसिल हुआ और वो सपा पर बरस पड़े। इसके बाद उपचुनाव के नतीजे तक वो सपा पर हमलावर रहे।
नतीजों के बाद मैनपुरी में सपा की जीत के लिए अखिलेश यादव और डिंपल यादव के काम को खारिज कर दिया। वहीं सपा नेता शिवपाल यादव की तारीफ करने लगे। यहां तक ऐलान कर दिया कि शिवपाल बुलाएंगे तो वो सपा के साथ चले जाएंगे।
इसके बाद 24 दिसंबर को वो डिप्टी सीएम बृजेश पाठक से मिलने भाजपा के कार्यक्रम में पहुंच गए। कार्यक्रम से आकर मीडिया से कहा- गठबंधन तो करूंगा लेकिन लोकसभा चुनाव से 5 महीने पहले, किसके साथ करूंगा ये भी तभी बताऊंगा।
राजभर के बृजेश पाठक से मुलाकात के बाद आया बयान अपने आप में थोड़ा अजीब है। वो खुलकर कह रहे हैं कि 2024 के लिए किसी से भी गठबंधन कर सकता हूं। ऐसे में हम राजभर से सवाल कर रहे हैं कि आपकी राजनीति में स्टैंड तो है ही नहीं। राजनीतिक पार्टियों के इतिहास को देखें तो बिना स्टैंड के मंत्री पद भले मिल जाए लेकिन पार्टी और कार्यकर्ताओं का भरोसा लीडर को देता है।
सिर्फ दिसंबर के बयानों की बात नहीं है। जब हम कह रहे हैं कि राजभर अपनी राजनीतिक पारी में ‘टिककर खेलने’ वाले नहीं दिखते हैं तो इसमें उनके पूरे 4 दशक के सियासी करियर को भी रख रहे हैं।
ना मायावती से बनी, ना योगी से निभी, अखिलेश से भी बनते ही टूट गई दोस्ती ओम प्रकाश राजभर प्रदेश के उन नेताओं में से हैं, जिन्होंने अपने दम पर एक मुकाम हासिल किया है। पिछडों और खासतौर से राजभर जाति की नुमाइंदगी का दावे करने वाले ओम प्रकाश कभी टैंपों में सवारी भी ढो चुके हैं।
राजभर ने राजनीतिक पारी की शुरुआत 1981 में कांशीराम के साथ की थी। वो पहला इलेक्शन भी बसपा से 1996 में लड़े थे। काशीराम जैसे-जैसे बसपा से दूर हुए और मायावती मजबूत हुईं, उनकी अनबन शुरू हो गई।
राजभर ने बसपा छोड़ी और 2002 में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) बनाई। ओम प्रकाश राजभर का 15 साल के संघर्ष रंग लाया 2017 के विधानसभा चुनाव में। इस चुनाव में भाजपा के साथ मिलकर लड़ी सुभासपा के 4 विधायक बने। ओम प्रकाश राजभर को योगी कैबिनेट में मंत्री बनाया गया।
मुश्किल से एक साल बीता होगा कि राजभर की योगी सरकार से अनबन शुरू हो गई। खटपट-खटपट में एक साल बीता। 2019 में राजभर योगी मंत्रिमंडल से बाहर आ गए और सुभासपा एनडीए से।
शिवपाल, चंद्रशेखर, ओवैसी के साथ भी बनाकर तोड़ चुके मोर्चा इसके बाद ओपी राजभर ने नए गठबंधन की तलाश शुरू की। राजभर ने ओवैसी, चंद्रेशेखर, शिवपाल यादव के साथ मिलकर मोर्चा बनाया और 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया।
विधानसभा चुनाव आने से पहले राजभर अखिलेश के संपर्क में आ गए। वो चुपचाप मोर्चा से निकले और सपा के साथ गठबंधन में चले गए। सुभासपा 18 सीटों पर लड़ीं और 6 जीती। नतीजे आते ही राजभर ने अखिलेश पर हमले शुरू कर दिए। यहां तक कि मऊ से सुभासपा MLA अब्बास अंसारी गिरफ्तार हुए तो उनको सपा का नेता बताकर कन्नी काट ली।
स्टोरी के शुरू में हमने दिल्ली एमसीडी और राजभर की राजनीतिक अस्थिरता की बात आपसे की थी। दिल्ली का मामला अकेला नहीं है। आज के राजनीतिक परिवेश में ज्यादातर वोटर स्पष्ट तौर पर बंटा हुआ है। आप एक ही वोटर से आज भाजपा कल कांग्रेस और परसों समाजवादी का पक्ष लेने को नहीं कह सकते हैं।
किसी पार्टी की विचारधारा से प्रभावित होकर जुड़ने वाला वोटर ही उसका सबसे विश्वसनीय वोटर और कार्यकर्ता होता है। अगर आप 6 महीने में समाजवादी और भाजपाई दोनों हो सकते हैं तो फिर आपके कार्यकर्ता के लिए बड़ी मुश्किल स्थिति हो सकती है। ऐसे में ओम प्रकाश राजभर अगर 40 साल की अपनी मेहनत को जाया होने से बचाना चाहते हैं तो जरूरी है कि एक स्पष्ट स्टैंड लें। गठबंधन हो या एकला चलो, जो भी हो स्पष्ट हो, ऐलानिया हो।