सांस्कृतिक राजदूत हैं गिरमिटिया मजदूर, रामायण लेकर पहुंचे सात समुंदर पार
Ram Mandir Katha 10: पत्रिका राम मंदिर कथा के इस एपिसोड में आज हम आपको बताएंगे कि आखिर गिरमिटिया मजदूरों को सांस्कृतिक राजदूत क्यों कहा जाता है। साथ ही, गिरमिटिया मजदूरों की वो कथा बताएंगे, जिसमें वे रामायण की प्रतियां लेकर सात समुंदर पार जाते हैं।
करीब तीन सौ वर्ष पहले तक ये सभी देश समुद्री टापू थे। जहां अंग्रेजों ने अपनी बस्तियां बसाई और यहां पर गुलाम के रुप में काम करने के लिए भारतीयों को ले गए।
गीता प्रेस की कोई दुकान हो तो वहां चलिए, मुझे रामचरित मानस सौ डेढ़-सौ प्रतियां लेनी है। सौ-डेढ़ सौ? क्या करेंगे इतना ? विदेशियों को देना है, सबकी डिमांड यही है कि गुरुजी भारत से आईएगा तो श्रीरामचरित मानस लेते आईएगा।
अंग्रेजी समेत विभिन्न विदेशी भाषाओं में रामकथा कहने वाले संत ब्रम्हदेव उपाध्याय जी प्रयाग में मिले। उनको भारत से जाने के बाद वेस्टेंडिज और फ्रांस में रामकथा कहना था। करीब चार दशक से वह विदेशों में हैं लेकिन प्रत्येक साल वाराणसी, अयोध्या और प्रयाग आते रहते हैं। श्रीराम जन्म भूमि आंदोलन में भी काफी सक्रिय रहे हैं जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। हम दोनों गीता प्रेस की दुकान पर पहुंचे लेकिन इतनी संख्या में श्रीरामचरित मानस उपलब्ध नहीं था, तो उन्होंने कहा हम डाक से भेज देंगे। आर्डर दे दिया गया। इस दौरान विदेशों में अयोध्या, श्रीराम कैसे हैं इस पर मैने उनको कुरेदा तो जमकर बोले। वह बताते हैं कि
‘गारा-माटी का काम करने वाले मजदूरों को ही गिरमिटिया कहा गया। जो ब्रिटीश कालखंड में बेगारी के नाम पर बंदी बनाकर विदेशों में ले जाए गए। अंग्रेजों ने समुद्री टापूओं पर उपनिवेशों में मुफ्त की मजदूरी के लिए भारतीयों को गुलाम बनाकर पानी के जहाज से ले गए। वे अपनी मातृभूमि छोड़ते वक्त जो सबसे कीमती वस्तु थी, उसे सीने से लगाकर ले गए और वह था श्रीरामचरित मानस या रामायण…’
हांलाकि विदेशी धरती पर पहले भी संत-महात्माओं का जाना-आना लगा रहा है और इसके पहले भी भारत के सांस्कृतिक राजदूतों ने रामकथा की धर्मध्वजा को स्थापित कर दिया था। विश्व के किसी भी कोने में अगर कोई सनातनी है तो वहां राम भी हैं।
18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अंग्रेजों ने संयुक्त प्रांत, बंगाल से बेगारी करने के लिए मजदूरों को जबरन दक्षिण पूर्व एशियाई देशों मारीशस, सूरीनाम, त्रिनिनाद, गुयाना, जमैका, फिजी आदि देशों में लगभग 12 लाख भारतीयों को ले गए। करीब तीन सौ वर्ष पहले तक ये सभी देश समुद्री टापू थे। जहां अंग्रेजों ने अपनी बस्तियां बसाई और यहां पर गुलाम के रुप में काम करने के लिए भारतीयों को ले गए।
मारीशस में प्रधानमंत्री के सलाहकार रहे सुरेश रामवर्ण बताते हैं कि ‘दादा जी तो अब नहीं रहे लेकिन वह अपने बचपन की बात बताया करते थे। वे लोग खेत में काम कर रहे थे, दादा जी के पिता-माता सपरिवार खेत में काम में लगे हुए थे। तभी अंग्रेज गाड़ियों से आए और खेतों में काम करने वालों को रस्सी से बांध दिया। उनको गुलाम बना दिया गया। जबरन उनको उनके खेत-घर, गांव-देश से सुदूर ले जाने की प्रक्रिया आरंभ हुई तो हड़बड़ी में जिसे जो मिला, ले लिया। ज्यादातर लोगों ने अपने साथ रामचरित मानस की पोथी उठाई और पानी की जहाज में बैठा दिए गए। समुद्र में जहाज धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया और अपना देश, अपनी मातृभूमि अपने तीर्थ ओझल होते गए लेकिन हमने अपने आराध्य, अपने परंपराओं और संस्कृति को अपने सीने से लगाए रखा…’
कोलकाता के जिस पानी के जहाज में जानवरों की तरह भरकर सुदूर अनजान देशों में गन्ने की खेती और अन्य कार्यो के लिए ले जाया गया। तब इनके हाथ में सिर्फ एक गठरी भर थी। समुद्र पार राम सिर्फ इसलिए पहुंंचे क्यों कि इन ‘गिरमिटिया’ मजदूरों के मन में राम थे और गठरी में रामचरित मानस। अनजाने, अनदेख, समुद्री टापू जहां जीव-जंतु, मौसम-फसल, जंगल-जानवर के बीच उनके संबल सिर्फ राम थे। जिनके जरीए वह राम की संस्कृति को जीते थे और धीरे-धीरे इसका प्रभाव बढ़ता गया और विदेशों में श्रीराम के साथ ही अयोध्या संस्कृति छाती गई। श्री ब्रम्हदेव उपाध्याय बताते हैं कि
‘कई देश ऐसे हैं, जहां आज भी वहां की देशज संस्कृति में अयोध्या की सांस्कृतिक विरासत मौजूद है। यहां तक कि मारिशस को लघु भारत कहा जाता है। रामायण और रामचरित मानस के प्रसंगों और उसकी आध्यात्मिक शक्ति के कारण विदेशों में गिरमिटिया समाज ने हर चुनौती का सामना किया है। मारिशस अयोध्या और श्रीराम के कारण राममय रहता है। यहां पर रामकथा का प्रभाव सांस्कृतिक रुप से हैं तो दूसरा साहित्य के कारण भी है…’
मारिशस, फिजी, सुरीनाम, जमैका, इंडोनेशिया, मलेशिया, गुयामा, त्रिनिनाद आदि देशों में पवित्र नदियों, तीर्थस्थानों, धर्मग्रंथों पर भक्तिभाव रखते हैं। पूर्व जन्म की अवधारणा, लोक-परलोक, शगुन-अपशकुन, स्वप्र विश्वास आदि पर उन लोगों की आज भी पूर्ण आस्था है। यहां तक कि अपने पुराहित कर्म, पूजा-पाठ आदि के लिए गिरमिटिया समाज ने अपने बीच के ही लोगों को पुजारी भी बना लिया।
दक्षिण अफ्रीका के मोरवुड रोड पर एक ऐसा ही परिवार है, जो जाति से ब्राम्हण है। रौशन लाल महाराज अपने टूटी-फूटी हिंदी में बताते हैं कि ‘मेरा और मेरे पिता जी का जन्म पढ़ाई-लिखाई सब दक्षिण अफ्रीका में ही हुआ और अब मै एक फैक्ट्री चलाता हूं। काफी बड़ा परिवार है, रामजी की कृपा से सभी सुखी और सम्पन्न हैं। लेकिन आज भारतीय समुदाय के लोग पूजा-पाठ, त्योहार के अवसर पर ‘सीदा’ देने आते हैं।’
सीदा क्या होता है ? जब उनसे प्रश्र किया तो वह बताए ‘प्रसाद जिसमें फल होता है, अनाज होता है और पैसा रहता है।’ तुरंत याद आया कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के इलाकों में पूजा कराने वाले ब्राम्हण को दिया जाने वाला दक्षिणा है, जिसे ‘सीद्धा’ कहा जाता है। वह आगे बताते हैं कि
‘हांलाकि अब हमलोग अमीर हैं। सरकार को सबसे अधिक टैक्स देते हैं। हमें ‘डोनेशन’ की जरुरत नहीं है लेकिन मां कहती है कि यह परंपरा है, जिसे दादा-परदादाओं ने किया है तो हमें भी करना होगा और रिचुवल डोनेशन लेते रहना है। हालांकि इसे लेकर हम किसी गरीब को दे देते हैं।’
आज भी प्रवासी भारतीय और गिरमिटिया समुदाय तुलसी की पूजा करता है। भारतीय संस्कारों की तरह ही नामकरण, विवाह, अंत्येष्टि आदि किए जाते हैं। यहां तक की वहां की लोक कलाएं भी भारतीय संस्कृति से जुड़ी हुई हैं। इसी तरह फिजी पहुंचे गिरमिटिया भारतीयों के कारण ही फिजी का राष्ट्रीय पर्व दीपावली है। फिजी में रामलीला के दौरान जब श्रीराम के वनगमन का प्रसंग आता है तो लोग सिसकने और रोने लगते हैं। उनको भारत याद आता है, वह अपने पूर्वजों के भारत से निर्वासित होने को याद करते हैं। उनको लगता है कि शायद एक दिन वह भी अपने घर, अपने राम के पास भारत लौट जाएं।
इंडोनेशिया, जावा में रामायण का व्यापक प्रभाव है। उनकी मूर्तिकला, चित्रकला आदि पर तो है ही, आधुनिक समय में वह कपड़े की प्रिंट पर भी दिखने लगा है। जावा में राजाओं के मकबरे की आधारशिला में रामायण के चित्र मौजूद हैं। हजार साल पुराने जावा के महाकाव्य में रामायण के अंश मिलते हैं। मलेशिया अपने नौसेनाअध्यक्ष को लक्ष्मण कहता है।
इसी तरह थाईलैंण्ड में तो पूरी अयोध्या ही बसा रखी है। यहां का एक शहर है जिसे अजुध्या कहते हैं। यहां का प्रमुख ग्रंथ है “रामकिएन” जिसका अर्थ रामकीर्ति है। थाईलैण्ड की रामलीला में वहां का शाही परिवार भी शामिल होता है।
युगांडा, तंजानिया, कीनिया आदि देशों में राम की मौजूदगी उनकी संस्कृति में है। इसी तरह श्रीलंका में जानकी हरण महाकाव्य है जो संस्कृत में लिखा गया है। सिंघली साहित्य में भी रामकथा का प्रभाव देखा जाता है। इतना ही नहीं, रुस में भी रामकथा का प्रभाव है। यहां पर कठपुतली के माध्यम से रामकथा का मंचन किया जाता है। मंगोलिया के लोग लंगूर को हनुमान मानकर पूजा करते हैं,मंगोलिया के क्रिस्टल मिरर, इयर डेकोरेशन ग्रंथ में रामकथा मिलती है। इसके अलावा अयोध्या और दक्षिण कोरिया का अद्भुत संबध है। यहां की राजकुमारी सुरीताना का विवाह कोरिया राजवंश के किम सुरो के साथ हुआ था। जिसकी चर्चा सांमगुक युसा पुस्तक में की गई है।
‘इस देश से ज्ञान और सभ्यता की ज्योति पहले यूनान गई और फिर वहां से रोम और पूरे संसार में फैली।’ (प्रोफेसर कालबूक, हिस्टोरिकल रिसर्च वाल्यूम 2, पेज 45 बी-46) प्रोफेसर कालबूक यूरोप के प्रसिद्ध इतिहासकार माने जाते हैं और सिर्फ कालबूक ही क्यों बल्कि मार्शमैन, ग्राहमपोल, ब्लेबेस्ट, प्रोफेसर वाल्टर रैले, कैप्टन ट्रायवर जैसे अनेक यूरोपिय विद्वानों ने अयोध्या और श्रीराम पर पर्याप्त लिखा है। विस्काउंट पार्लामस्र्टन लिखते हैं कि
‘जब यूरोप अर्धबर्बर अवस्था में था, उस समय भारत की सभ्यता के उच्च शिखर पर था, और उसकी राजधानी अयोध्या थी। जब नील नदी घाटी में सभ्यता के पिरामिडों का निर्माण भी नहीं हुआ था, तब यूरोपियन सभ्यता का केंद्र समझे जाने वाले यूनान और रोम बिलकुल असभ्य थे। उस समय भारत सभ्य और सुशिक्षित होने के साथ ही धन-वैभव का धाम था। उस समय भारत की राजधानी अयोध्या थी।’ आज पूरी दुनिया अयोध्या की तरफ देख रही है।
हे राम! मेरे राम !! …
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