पहले ऐसे होती थी सर्जरी एक समय था जब कृत्रिम लैंस का आविष्कार नहीं हुआ था। इंट्राकैप्सुलर विधि से की जाने वाली सर्जरी में आंखों पर 7-8 टांके लगाए जाते थे। रोगी एक सप्ताह तक अस्पताल में भर्ती रहता था। मरीज को संक्रमण और धूल से बचाने के लिए आई शील्ड अथवा हरी पट्टी (ग्रीन पैड) लगानी पड़ती थी। सर्जरी के बाद मरीज को मोटा प्लस 10 डायोप्टर वाला काला चश्मे पहनना पड़ता था। इन्हें ‘अफैकिकग्लासेस’ कहा जाता था। यह चश्मा न केवल असुविधाजनक था, बल्कि दृष्टि की गुणवत्ता को भी सीमित करता था।
अब आया बदलाव, नहीं लगाने पड़ते टांके समय के साथ नई तकनीकों ने मोतियाबिंद सर्जरी के परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया है। छोटी चीरे वाली सर्जरी (माइक्रो इनसिशनकैटरेक्ट सर्जरी) और लैंस प्रत्यारोपण ने न केवल सर्जरी को आसान बनाया, बल्कि मरीजों की रिकवरी को भी तेज कर दिया। आज टॉपिकलफेकोइमल्सिफिकेशन और फोल्डेबल लैंस प्रत्यारोपण ने मोतियाबिंद सर्जरी को नई दिशा दी है। इन विधियों में 2.2 से 2.8 मिमी का छोटा चीरा लगाया जाता है, जिससे टांके की आवश्यकता नहीं पड़ती और मरीज को सर्जरी के कुछ ही घंटों में अस्पताल से छुट्टी मिल जाती है।
सर्जरी का बढ़ता दायरा आज भारत और विश्वभर में लाखों लोग हर साल मोतियाबिंद सर्जरी के जरिए अपनी दृष्टि वापस पाते हैं। भारत में हर साल लगभग 84 लाख और दुनियाभर में करीब 3.5 करोड़ मोतियाबिंद सर्जरी की जाती हैं। इन सर्जरी ने लाखों रोगियों को दृष्टिहीनता से छुटकारा दिलाकर उनके जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाया है।
पहले जहां बड़े चीरे वाली मोतियाबिन्द सर्जरी के बाद एक माह तक हरी पट्टी या काले चश्मे पहनने की आवश्यकता होती थी, अब फेको सर्जरी से पारदर्शी चश्मों ने ले ली है। फोटोफोबिया (रोशनी से आंखों में तकलीफ) जैसी समस्याएं भी अब न्यूनतम हो गई हैं।
डॉ. सुरेश पाण्डेय, नेत्र सर्जन, कोटा पहले चीर-फाड़ के कारण संक्रमण का खतरा रहता था। ऐसे में चश्मे की आवश्यकता पड़ती थी। अब ऑपरेशन आसान हुए तो काले चश्मे व पट्टी की आवश्यकता कम हो गई। लोगों के सवालों से बचने के लिए मरीज सादा पारदर्शी चश्मा लगाना पसंद कर रहे हैं। इससे दिनचर्या प्रभावित नहीं होती। विजन भी कम नहीं होता है।
डॉ. सुधीर गुप्ता, नेत्र रोग विशेषज्ञ