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मवेशी तक शिकार
डॉ. चौबीसा बताते हैं कि राजस्थान में 80 के दशक जानवरों में फ्लोराइड की मौजूदगी नहीं थी। 90 के दशक में पहली बार यहां इंडस्ट्रीयल फ्लोराइड का घातक पहलू सामने आया। विद्युत उत्पादन और ईंटें बनाने के लिए कोयले को जलाने, इस्पात, लोहा, जिंक, एल्युमिनियम, फॉस्फोरस, केमिकल फर्टिलाइजर, कांच, प्लास्टिक और सीमेंट कारखानों के साथ ही हाइड्रोफ्ल्यूरिक एसिड इस्तेमाल करने वाले उद्योग बढे तो फ्लोराइड का स्तर बढऩे लगा। मनुष्यों के साथ ही पशु भी फ्लोरोसिस जैसी लाइलाज बीमारी की चपेट में आ गए।
सबसे पहले बकरियों में
वे बताते हैं कि जून 2015 में पहली बार इंडस्ट्रीयल फ्लोराइड की वजह से पशुओं में फ्लोरोसिस बीमारी मिली। कोटा में थर्मल प्लांट और उदयपुर में फर्टिलाइजर संयंत्र के पास बसे गांवों में 108 बकरियों पर औद्योगिक फ्लोराइड और उसके प्रभावों का विश्लेषण किया गया। इसके बाद दो साल तक चले शोध के नतीजे बेहद चौंकाने वाले रहे। दोनों जगहों पर फ्लोराइडयुक्त गैसों के उत्सर्जन के कारण घरेलू बकरियों (कैप्रा हिरकस) में डेंटल और स्केलेटल फ्लोरोसिस की मौजूदगी मिली। बड़ी बात यह कि दोनों ही जगह पानी में फ्लोराइड की सान्द्रता बेहद कम थी, यानि फ्लोरोसिस के सभी प्रभाव औद्योगिक गतिविधियों और फ्लोराइड युक्त गैसों के कारण ही हैं।
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गाय भैंसों में ज्यादा
शोध में गाय-भैंस या अन्य पशुओं में फ्लोरोसिस के लक्षण बकरियों से अधिक मिले । वजह यह कि बकरियों के भोजन में कैल्शियम और विटामिन सी की मात्रा पर्याप्त होने कारण रोग-प्रतिरोधक क्षमता भी अधिक होती है।
शोध में सामने आया कि फ्लोराइडयुक्त गैस के उत्सर्जन के बाद उनके सूक्ष्म कण सांसों में जाते थे। आस-पास के पेड़-पौधों पर भी जम जाते हैं, जब बकरियां इसे खाती तो यह शरीर में पहुंच जाते। इन बकरियों में ऑस्टियो-डेंटल फ्लोरोसिस के साथ ही लंगड़ापन, जोड़ों में विकृतियां और सूजन, मांसपेशियों में खिंचाव, जबड़े, पसलियों, पंजों और धड़ के हिस्से की हड्डियों में घाव मिले।