शब्द की ताकत को पहचान लेने के बाद कालाबादल का शब्दों और किताबों कभी नाता नहीं टूटा। रोजी-रोटी के लिए किताबों (पोथियों ) की जिल्दसाजी का काम किया। कालाबादल आजादी की स्वर्णिम पोथी के ऐसे अनूठे जिल्दसाज थे, जिन्होंने अपने गीतों से जन-जन में राष्ट्रीय चेतना का संचार किया। उन्होंने जीवनयापन के लिए रामगंजमंडी में जिल्दसाजी व साबुन की दुकान खोली। अपने गुरु पंडित नयनूराम शर्मा के सहयोग से रामगंजमंडी में ही पुस्तकालय की स्थापना की और जनजागृति में जुट गए।
बमुश्किल सातवीं जमात तक शिक्षा हासिल करने में कामयाब रहे काला बादल ने अपने जीवन में न केवल शिक्षा के महत्व को समझा बल्कि नयाबास स्कूल में पांच वर्ष तक अध्यापन कर भावी पीढ़ी को आखर- उजास भी बांटा। कालाबादल जीवन पर्यंत कई मोर्चो पर एक साथ लड़े-भिड़े और जहां रहे वहां ईमानदारी -सच्चाई का परचम फहराया।
भारत माता को दासता के बंधन से मुक्ति के लिए देश-प्रदेश के हजारों-हजार लोगों ने तन-मन-धन न्योछावर किया। ऐसे में भला हाड़ौती अंचल कैसे पीछे रहता। इस मिट्टी में ऐसे कई सपूत जन्मे, जिन्होंने सम्पूर्ण जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया। इन्हीं में से एक नाम कालाबादल का है जो जीवनभर महात्मा गांधी के आदर्शों के अनुयायी रहें। 1936 में खानपुर से प्रजामण्डल के सक्रिय सदस्य के रूप में स्वाधीनता संग्राम से एक बार जुड़े तो फिर स्वतंत्रता का नूतन सूरज उगने तक कभी मुड़कर नही देखा। वो चाहे 1942 का ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ हो या फिर विनोबाजी का भूदान आंदोलन। प्रजामण्डल के प्रति जागरूकता को लेकर उद्घोष किया-
थाक्या थांका जुल्मा सूं, म्हें प्रजामण्डल खोलेंगा।
छाना रहबा को यो ऑडर तोड़ा, सुख सूं बोलेंगा।।
हाड़ौती अंचल के पहले अनूठे लोककवि कालाबादल ने अपने गीतों को बड़ी ताकत बनाया और गांव-गांव जाकर गीतों के माध्यम से लोगों के मन में न केवल आजादी की चाह पैदा की बल्कि किसानों,वंचितों और शोषितों का दु:ख-दर्द को प्रखर स्वर दिया। उनमें हक के लिए लडऩे की जिद पैदा की। कालाबादल किसानों व सामाजिक रूप से पिछड़ों के उत्थान के लिए सदैव ही प्रयत्नशील रहे। उनके प्रसिद्ध गीत ‘काला बादल रे! अब तो बरसा दे बळती आग’ की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं…
बादल राजा कान बिना रे, सुणे न म्हाकी बात।
थारा मन की तू करे, जद चाले वांका हाथ।।
कसाई लोग खींचता रहे, मरी गाय की खाल।
खींचे हाकम हत्यारा, ये करसाणा की खाल।।
माल खावे चोरड़ा रे, खावे करज खलाण।
कचेडिय़ां में हाकम खावे, भूखा कंत का प्राण।।
फटी धोवती, फटी अंगरखी, फूट्या म्हाका भाग।
काला बादल रे अब तो बरसा दे बळती आग।।
कालाबादल संस्मरणों में तीन गीत संग्रह के प्रकाशन का जिक्र करते हैं- ‘गांवों की पुकार’, ‘आजादी की लहर’ और ‘सामाजिक सुधार’। इनमें आजादी की लहर पुस्तक को अंग्रेज सरकार के द्वारा प्रतिबंधित भी किया गया, लेकिन आजादी का यह परवाना कब हार मानने वाला था। अपने गीतों में शब्दों का बारूद भरकर अंग्रेज शासन और जागीरदारों की नींद उड़ाते रहे।
अपने संस्मरणों में जिक्र करते हुए काला बादल लिखते हैं कि सन 1946 में उदयपुर में देशी राज्य लोक परिषद सम्मेलन का आयोजन किया गया। जिसमें पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी शिरकत की थी। भैरव लाल की स्वयंसेवक के रूप में ड्यूटी नेहरू को जहां ठहराया गया था, वहां लगी। एक दिन पहले रात 2 बजे नेहरू विश्राम के लिए आवास पहुंचे। इस बीच पहरे पर तैनात भैरवलाल को नींद आने लगी तो ‘कालाबादल रे, अब तो बरसा दे बळती आगÓ गीत गाना शुरू कर दिया। नेहरू ने सुना तो उन्होंने स्वयंसेवकों से भैरव लाल को अपने कक्ष में बुलाया और पूरा गीत सुना। दूसरे दिन सम्मेलन में नेहरू ने मंच से कालाबादल गीत वाले स्वयंसेवक से अपना गीत सुनाने के लिए आवाज लगवायी। गीत को लोगों ने खूब पसंद किया और उसी दिन से नेहरू द्वारा दिए गए उपनाम से भैरवलाल, कालाबादल हो गए।
कालाबादल राजस्थान की प्रथम विधानसभा सन् 1952 में दो वर्ष, 1957,1967 और सन 1977 में विधानसभा के सदस्य रहे। सन् 1978 से 1980 तक जनता पार्टी सरकार में आयुर्वेद राज्य मंत्री रहे। 1967 से 1976 तक राजनीति से संन्यास लेकर समाज सेवा के कार्यों से जुड़ गए और ‘मीणा-संसार’ पत्रिका का सम्पादन भी किया।
कालाबादल के संस्मरण व काव्य संग्रह ”काला बादल रे! अब तो बरसा दे बलती आग’ का सम्पादन कोटा के युवा कवि एवं लेखक रामनारायण मीना ‘हलधर’ और डॉ. ओम नागर ने किया है। श्रीमीना समाज विकास समिति की ओर से प्रकाशित पुस्तक में उनके जीवन -संस्मरण, सघर्ष, स्वतंत्रता आन्दोलन में उनकी सक्रिय भूमिका के साथ ही उनके हाड़ौती के लोकप्रिय गीत-कविताओं को शामिल किया गया है। पुस्तक का विमोचन सोमवार को नगर विकास ऑडिटोरियम में होगा।