मंदिर का इतिहास
मंदिर के पुजारी केके तिवारी ने बताया कि शिवाले में इतिहासिक भगवान शिव का कैलाश मंदिर है। रावण शिव के भक्त थे। इसी के तहत महाराज गुरु प्रसाद शुक्ल ने 1890 में भगवान कैलाश के मंदिर की रखवाली करने के लिए रावण का मंदिर बनवाया था। परंपरा के अनुसार दशहरा की सुबह नौ बजे मंदिर के कपाट खोले गए रावण की प्रतिमा का साज श्रृंगार किया गया और आरती के भक्तों ने दशानन के दर्शन कर मन्नत मांगनी शुरू कर दी, जो देरशाम तक जारी रहेगी।
आरती के बाद पूजा-अर्चना
केके तिवारी के मुताबिक यह मंदिर साल में केवल दशहरे के दिन खुलता है। इस लिये पूरा दिन यहां श्रध्दालुओं का तांता लगा रहता है और पूजा अर्चना होती है। भक्तगण आरती के बाद सरसों के तेल का दिया जलाकर मन्नतें मांगते हैं। पिछले करीब 128 सालों से यहां रावण की पूजा की परंपरा का पालन हो रहा है। संध्या के समय रामलीलाओं में रावण वध के साथ ही मंदिर के द्वार अगले एक साल के लिये बंद कर दिए जाएंगे।
प्रसन्न होकर दिए थे दर्शन
केके तिवारी ने बताया कि जब गुरु जी ने शिव के मंदिर का निर्णाण करवाया, तब अपने भक्त के इस काम से प्रसन्न होकर रावण ने उन्हें दर्शन दिए थे। बताते हैं, इस मंदिर पर किसी प्रकार का चढ़ावा नहीं चढ़ता । मंदिर में पूजा के लिए आने वाले भक्त सिर्फ फूल और सरसों का तेल लेकर आते हैं । मान्यता है कि रावण मिठाई ग्रहण नहीं करता, और न ही उसके दरवार पर पैसा चढ़ता । तिवारी के मुताबिक रावण दान लेते नहीं दान देते हैं। उनके ही सोने की लंका का सोना है जो आज भी लोग ग्रहण करते हैं।
पंडित ही नहीं वैज्ञानिक भी
केके तिवारी बताते हैं के रावण प्रकांड पंडित ही नहीं, वैज्ञानिक थी थे। ायुर्वेद, तंत्र और ज्योतिष के क्षेत्र में रावध का योगदान महत्वपूर्ण हैं। इंद्रजाल जैसी अथर्ववेदमृलक विद्या अनुसंधान किया। रावध जानता था कि भगवान श्रीराम ही उसे राक्षस वंश से उसे मोक्ष दिला सकते हैं। यही वजह थी कि लंकेश एक लाख पुत्र और सवा लाख नातियों को मोक्ष दिलाया। मां सीता का हरण के बाद भी उसने नारी व सतीत्व की मर्यादा का पालन किया। तभी मा सीता को राजमहल में न रखकर अशोक वाटिका में रखा था।
1 दिन के लिए आते हैं लंकापति
तिवारी की मानें तो दशहरे के दिन लंकापति की उपस्थिती साफ तौर देखनें को मिलती है। सुबह के वक्त मंदिर का नजारा बदला-बदला रहता है। भक्त अपने अराध्य की पूजा-अर्चना कर मन्नत मांगते हैं। लंकापति अपने भक्तों की हर मनोकामना पूरी करते हैं। मंदिर के पास रहने वाले रावण भक्त रघुनंदन बताते हैं कि पिछले 75 साल से वह दशहरा पर्व अपने घर के बजाए लकापति के साथ मनाते हैं। आज तक जो मांगा, वह हमें मिला।