1924 में फूलबाग मैदान में गाया था गीत
1923 में फतेहपुर जिला कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। सभापति के रूप में पधारे मोतीलाल नेहरू को अधिवेशन के दूसरे दिन ही जरूरी काम से मुंबई जाना पड़ा। कांग्रेस ने उस समय तक तिरंगा झंडा तय कर लिया था, लेकिन जन-मन को प्रेरित कर सकने वाला कोई झंडागीत नहीं था। ये बात हमारे बाबा को खटक गई। ऐसे में उन्होंने झंडागीत लिखने की ठान ली। साल 1924 में कानपुर में होने वाले अधिवेशन से पहले उन्होंने पूरी-पूरी रात जागकर झंडागीत की रचना कर दी। सात छंदों में लिखे इस गीत के पहले और आखरी छंद को बेहद लोकप्रियता मिली। जालियावाला बाग के स्मृति में पहली बार यह गीत 13 अप्रैल 1924 को कानपुर के फूलबाग मैदान में हजारों लोगो के सामने गाया गया। उस दौरान जवाहर लाल नेहरू भी इस आम सभा में मौजूद थे। नेहरू जी ने गीत को सुनकर कहा था, भले ही लोग श्याम लाल गुप्त को नहीं जानते होंगे, लेकिन पूरा देश राष्ट्रीय ध्वज पर लिखे गीत से जरूर परचित होंगे।
आजादी की जलाते थे अलख, जेल भी भेजे गए
जनरल गंज इलाके में अपने जीवन की अंतिम सांस लेने वाले पार्षद श्यामलाल गुप्त का जन्म 9 सितम्बर 1896 को नरवल गांव में हुआ था। पांच साल की उम्र में इन्होंने परोपकारी पुरुष मुहिम में, पावन पद पाते देखे,उनके सुन्दर नाम स्वर्ण से सदा लिखे जाते देखे, नाम की कविता लिखी थी। असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण पार्षद जी को रानी अशोधर के महल से 29 अगस्त 1929 को गिरफ्तार किया गया। जिला कलेक्टर द्वारा उन्हें दुर्दान्त क्रान्तिकारी घोषित करके केन्द्रीय कारागार आगरा भेज दिया गया। 1930 में नमक आन्दोलन के सिलसिले में पुनः गिरफ्तार हुये और कानपुर जेल में रखे गये। पार्षद जी 1931 में और 1942 में फरार भी रहे। 1944में आप पुनः गिरफ्तार हुये और जेल भेज दिये गये। इस तरह आठ बार में कुल छः वर्षों तक राजनैतिक बन्दी रहे।
उधार की धोती पहनकर पहुंचे थे दिल्ली
नारायणी ने बताया कि उन्हें झंडा गीत को लेकर पद्मश्री अवार्ड देने के लिए दिल्ली प्रधानमन्त्री कार्यालय से बुलावा आया था। उस समय उनके पास न तो धोती कूर्ता ढंग का था और ना ही उनके पास जूता था। ऐसे में पति ने अपने दोस्त से कुछ रुपए उधार लेकर उनके लिए धोती कुर्ता और जूते का इंतजाम किया था। जिसे पहनकर वो दिल्ली गए थे। जब उन्हें मंच पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बुलाया और उनका हाल देखा तो वो रो पड़ीं थीं। नरायणी बताती हैं कि आजादी के बाद देश के नेता हमारे ससुर को भूल गए, लेकिन वो मरते दम तक जनता के लिए काम करते रहे।
10 अगस्त 1977 को उर्सला में हुई थी मौत
पौत्र राजेश ने कहा, नंगे पांव घूमने की वजह से उनके दाहिने पैर में कांटा चुभ गया था। जो बाद में बड़ा घाव बन गया। उनदिनों घर की माली हालत खराब होने के कारण अपना अच्छे से इलाज नहीं करा सके। जिंदगी के आखिरी दिनों में इन्हें उर्सला हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था। डॉक्टरों ने उनको एडमिट नहीं किया। इसके चलते 10 अगस्त 1977 को इनकी मौत हो गई। मौत के बाद डॉक्टरों ने उनकी डेडबॉडी को वार्ड से बाहर निकाल कर कैंपस में एक किनारे जमीन पर डाल दिया था। बॉडी को घर ले जाने की कोई व्यवस्था नहीं कराई गई। बाबा की मौत के बाद आजतक कोई नेता हमारे घर नहीं आया। गरीबी और मुफलिसी में हम जी रहे हैं, लेकिन हमें गर्व का है कि हम एक क्रांतिकारी के पौत्र हैं।