बीकानेर के राजदरबारी गायक बंशीलाल-जमुनादेवी दमामी के घर 14 अप्रैल 1920 को जन्मी गवरीदेवी का घर का संगीत से जुड़ा था और परिवार ने ही उन्हें मां सरस्वती की शरण में संगीत सिखाया। कण्ठ की माधुर्यता में भजन, ठुमरी, लोक संगीत, गजल, मांड के साथ दरबारी गायन में सिद्धहस्त होने के बाद उनकी पहचान कलाकार के रूप में हुई। कई संस्थाएं उन्हें गायन के लिए आमंत्रित करती रही।
गवरी देवी का विवाह 20 वर्ष की आयु में जोधपुर के जागीरदार मोहनलाल गामेती के साथ हुआ। एक पुत्री होने के बाद उनके जीवन कुछ समय तक खुशियां छाई लेकिन अल्प आयु में ही गवरी देवी को अपना पति को खोना पड़ा । उन्होंने कभी गायकी नहीं छोड़ी। आर्थिक संकट के कारण आखिरकार मांड गायन ही आजीविका बन गई। जोधपुर महाराजा उम्मेदसिंह ने गवरीदेवी को संरक्षण व प्रोत्साहन दिया।
बीकानेर राजघरानों में विविध गायकी ने उच्च स्तरीय श्रेणी के गायकों में ला दिया। राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, जोधपुर ने इनकी आवाज को बुलन्द करते हुए अन्तर्राज्यीय सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अन्तर्गत उड़ीसा, कर्नाटक, महाराष्ट, गोवा, बंगाल, केरल, तमिलनाडू आदि प्रान्तों में भेजा। अकादमी की ओर से उन्हें कई बार सम्मानित किया गया। गवरी देवी के 100 गीत ध्वनिबंद भी किए गए। देश की एचएमवी ने उनका एलपी रिकार्ड भी जारी किया जिससे उनकी ख्याति बढ़ती चली गई। भारत सरकार ने केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी के सर्वोच्च पुरस्कार तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन के हाथों ताम्रपत्र भी प्रदान किया गया जो जो एक लोक कलाकार के लिए उच्च सम्मान था।
राजस्थान के अतिरिक मद्रास स्टेट संगीत नाटक अकादमी की ओर से उन्हें ‘रजत पदक’ दिया। जोधपुर स्थापना दिवस पर स्वर सुधा संस्था की ओर से उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया गया। मरणोपरांत राजस्थान रत्न राजस्थान सरकार की ओर से मरणोपरांत वर्ष 2012 में गवरी देवी को राजस्थान का सर्वोच्च पुरस्कार ‘राजस्थान रत्न से नवाजा गया। खुशी की बात तो यह है कि भारत के महान व्यक्तियों के नामों में सम्मिलित है और उप नाम ‘राजस्थान की मरुकोकिला से ख्याति प्राप्त है। गवरी देवी 29 जून 1988 को नश्वर संसार से अलविदा कहा पर उनकी पहचान मांड गायकी -केसरिया बालम, आओ ना..इतिहास रच गयी।
उनकी स्मृतियां आज भी हमारे दिलों में
गवरी देवी के पिता बंशीलाल बीकानेर महाराजा के प्रमुख दरबारी गायक थे । घर में मांड गायकी के वातावरण में गवरी देवी पारंगत गायिका बन गई । बाद में वह बीकानेर से जोधपुर आ गई थी। उन्होंने सिद्धेश्वरी देवी और रसूलन जैसी सिद्धहस्त ठुमरी व गजल गायिकाओं से बहुत कुछ सीखा था। वर्ष 1957 में गवरी देवी ने रेडियो और दूरदर्शन पर मांड गायकी के कार्यक्रम देने शुरू किए जो काफी लोकप्रिय रहे ।
वर्ष 1962 में मद्रास संगीत नाटक एकेडमी तथा 1965 और 1983 में गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में लोक नृत्य उत्सव में गवरी देवी को सम्मानित किया गया। वे प्रतिवर्ष राजस्थान पर्यटन विभाग की ओर से आयोजित समारोह में मांड गायकी के कार्यक्रम प्रस्तुत करती रही। राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, भारतीय लोक कला मंडल, राजस्थान दिवस समारोह समिति, अखिल भारतीय लोक संस्कृति सम्मेलन व साहित्य कला परिषद सहित सैकड़ों संस्थाओं की ओर से भी सम्मानित किया गया था। उनसे जुड़ी कई यादें आज भी हमारे जेहन में है। उनकी पुण्यतिथि पर जोधपुर के टाउन हॉल के पास मार्ग का नामकरण पट्टिका का अनावरण होना था लेकिन कोरोनाकाल के कारण यह हो नहीं पाया।
– जैसा की गवरीदेवी के इकलौते नातिन जितेन्द्र वर्मा की पत्नी निर्मलादेवी वर्मा ने पत्रिका के नंदकिशोर सारस्वत को बताया
कोमल कोठारी और गवरी देवी को मिला था राष्ट्रीय पुरस्कार साथ-साथ
राष्ट्रीय संगीत नाटक एकेडमी की ओर से कला एवं संस्कृति क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए लोक कला मर्मज्ञ कोमल कोठारी और विख्यात मांड गायिका गवरी देवी को एक ही दिन भुवनेश्वर में आयोजित समारोह में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था । रूपायन संस्थान के निदेशक पदमश्री अलंकृत कोमल कोठारी ने राजस्थान की लोक कलाओं के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा। लोक संगीत, लोक कला व लोककथा के साथ कठपुतली कला को विदेशों में लोकप्रिय बनाया । बाड़मेर जिले के लंगा बंधुओं की गायकी व संगीत विधा से पूरे विश्व को अवगत कराने में महत्वपूर्ण भूमिका रही।
उनकी गायकी सांस्कृतिक धरोहर
अपनी खनकदार गायकी से गवरी देवी ने देश-दुनिया में अपनी पहचान बनाई थी। मारवाड़ की मरु कोकिला गवरी देवी की मांड गायकी आज भी अपना जादू बिखरने में सफल है। राजस्थानी लोक संगीत की मांड गायकी आज भी हमारी सांस्कृतिक धरोहर है और हमेशा रहेगी।
महेश कुमार पंवार पूर्व सचिव, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, जोधपुर