टोपीदार बंदूक की कीमत 3 से 7 हजार रुपए है। अब इसे कारतूसी बंदूक की श्रेणी में रखने से मुश्किलें बढ़ गई है। आदिवासी पहले सरकारी शुल्क जमाकर आसानी से नवीनीकरण करवा लेते थे लेकिन अब चिकित्सकीय व शस्त्र संचालन प्रशिक्षण प्रमाण की अनिवार्यता व स्टाम्प ड्यूटी भुगतान से यह काफी मंहगी हो गई। शस्त्र निर्माताओं का कहना है कि रिन्यूअल में प्रमाण पत्र सहित सात से आठ हजार रुपए का खर्च आ रहा है जो बंदूक की कीमत से ज्यादा है।
टोपीदार बंदूक का इतिहास आजादी की जंग से जुड़ा हुआ है। सन 1857 की क्रांति में टोपीदार बंदूक इजाद हुई। इस बंदूक की नाल में बारूद भरकर टोपी लगाई जाती है। इसे चलाने के बाद तेज आवाज के साथ धमाका होता है, जिससे हिंसक पशु जानवरों में आत्मरक्षा के लिए काम आने लगी और आदिवासियों की पहचान बन गई।
उदयपुर संभाग के अलावा सिरोही, अजमेर, कोटा, झालावाड़ में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के अनपढ़ किसान है। भील, गरासिया अपनी छोटी-मोटी जमीन में बुवाई के साथ ही मजदूरी कर जीवनयापन करते है। दूरदराज के इन गांवों में पैंथर, भेडिय़ा, सियार, भालू, नील गाय आदि जानवर खेतों में घुसकर फसल को बर्बाद के साथ ही इंसानों पर हमला करते है। इन हिंसक पशुओं से बचने के लिए ही खेतीहर लोग टोपीदार बंदूक काम में लेते है।
राज्य में 2006 के बाद लाइसेंस देनी की प्रक्रिया बहुत धीमी हो गई। इसके चलते कारखाने बंद हो गए। करीब 400 जने पर रोजगार का संकट हो गया। मजदूरी में अन्य धंधे कर रहे है। लाइसेंस सुचारू हो तो कारखाने वापस खुल सकते है। राज्य सरकार आदिवासी अंचल को देखते हुए रिन्यूल फीस को कम करे और शास्ती को खत्म करे तो कई नवीनीकरण हो पाएंगे।
—रशीद खां, अध्यक्ष, ऑल गन डीलर्स एंड मेन्यूफैक्चर्स ऑफ राजस्थान
09 वर्ष में प्रदेश में जारी हुए सिर्फ 100 लाइसेंस
07 फैक्ट्रियां थी शहर में टोपीदार बंदूक निर्माण की
4100 बंदूकें लाइसेंस से एक वर्ष में बनती थी
06 फैक्ट्रियों में लटके पड़े है ताले
50-60 बंदूक बन रही है पूरे वर्ष भर में
50 हजार से ज्यादा से लाइसेंस थे उदयपुर संभाग में