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जयपुर

ट्रांसजेंडर को क्यों निकालते हैं घर से बाहर-चित्रा मुद्गल

साहित्यकार चित्रा मुद्गल के उपन्यास हाशिए पर खड़े लोगों के दर्द को प्रस्तुत करते हैं। किन्नरों पर लिखे उनके उपन्यास-‘पोस्ट बॉक्स नंबर-203 नाला सोपारा’ ने किन्नरों के जीवन को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया है। यह उपन्यास आज भी चर्चा का विषय है। चित्रा मुद्गल से डॉ. पद्मजा शर्मा की इसी उपन्यास को लेकर बातचीत हुई।

जयपुरNov 22, 2020 / 02:08 pm

Chand Sheikh

ट्रांसजेंडर को क्यों निकालते हैं घर से बाहर-चित्रा मुद्गल

ट्रांसजेंडर को क्यों निकालते हैं घर से बाहर-चित्रा मुद्गल

उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नं 203 नाला सोपारा’ का विचार कैसे आया?
मैंने निश्चय कर लिया था कि ट्रांसजेंडर पर लिखना है। मैं इन्हें ट्रांसजेंडर भी नहीं कहना चाहती। मैं इन्हें अलग नहीं देखती। 1978 की बात है। मैं ट्रेन द्वारा दिल्ली से मुंबई आ रही थी अपने बच्चों के साथ। तभी मुझो दिखाई दिया एक युवा खूबसूरत लड़का। वह दौड़ते हुए गाड़ी पर चढ़ा। वह ट्रांसजेंडर था। उससे मेरी बात हुई। उसे कुछ दिन मैंने अपने घर में भी रखा। ‘पोस्ट बॉक्स नं 203 नाला सोपारा’ की कहानी उसी के इर्द गिर्द रची गई है।
आप किन्नरों के लिए सरकार से क्या चाहती हैं?
कन्या भ्रूण हत्या की तरह इनके लिए भी कानून बनना चाहिए। इनको घर में ही रखा जाए और वैसे ही शिक्षित किया जाए जैसे दिव्यांगों को किया जाता है। उनकी पढ़ाई लिखाई की व्यवस्था की जाए।
आपने इस उपन्यास में आखिर में विनोद व उसकी बा को मार क्यों दिया?
मैंने नहीं मारा। धर्म ने मारा है। राजनीति ने मारा है। समाज ने मारा है। और खुद मनुष्य ने मारा है। इन चार चीजों पर यह उपन्यास आधारित है। ऐसे बच्चों की हत्याएं हमने की हैं। इन्हें घर से बेदखल कर के। हमने किन्नर समुदाय को अंधेरों में धकेल दिया है। ऐसे बच्चे को घर में रखना अमंगल माना जो हमारी विरासत न चला सके। वो किसी धार्मिक अनुष्ठान में सम्मिलित नहीं हो सकता।
इस उपन्यास पर पाठकों की क्या प्रतिक्रिया रही?
2011 में सबसे पहले इसका एक अंश ‘वागर्थ’ में छपा। एक जज ने मुझो चि_ी लिखी कि यह पढ़कर मुझो लग रहा है कि मैंने इन लोगों के साथ होने वाले अन्याय के बारे में कभी नहीं सोचा। उपन्यास पर लोग मुझो चि_ियां लिखते हैं।
उपन्यास में राजनीति का डरावना चेहरा दिखाया है।
उस क्रांतिकारी नरोत्तम की आवाज को दबाने के लिए उसे मार दिया गया। राजनीति चाहती है कि उसके पक्ष में बोला जाए। देखो एक किन्नर बच्चे को सरकार ने कंप्यूटर शिक्षा देकर आत्म निर्भर बनाया। हम उनके भले के लिए सोच रहे हैं। वो अपनी बीमार मां से मिलना चाहता है। उसके टिकट का प्रबंध कर दिया जाता है और बाद में उसकी हत्या हो जाती है। यह जो हत्या होती है पाठक के सामने प्रश्न चिन्ह बनकर खड़ी होती है।
उपन्यास अपना गहरा असर कैसे छोड़ता है?
यह उपन्यास हम सबसे यह सवाल पूछता है कि हम नंगे बच्चे को घर में रख सकते हैं। दिव्यांग को रख सकते हैं। पागल बच्चे को घर में रख चिकित्सा कराते हैं। फिर आखिर ट्रांसजेडर बच्चे को घर से क्यों निकालते हैं?
आजकल आप क्या लिख रही हैं?
उपन्यास ‘नकटौरा’ लिख रही हूं। इसका अर्थ है नाक कटाकर नाटक करना। अवध के इलाके में बारात जाने के बाद औरतें रात भर जगा करती हैं, स्वांग भरती हैं। इसे नकटौरा कहते हैं। पुरुषों की नकल करती हैं। आज लगता है पितृ समाज नकटौरे से गुजर रहा है।

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