आपको यह जानकर हैरत जरूर होगी, लेकिन 18वी शताब्दी के उत्तराद्र्ध व 19वीं शताब्दी की शुरुआत में औद्योगिक क्रांति का श्रेय उदयपुर जिले की जावर माइंस को दिया जाता है।
यूरोप के आर्थिक काया पलट करने में अहम भूमिका निभाने वाला सर्वाधिक जस्ता जावर ने ही दिया था। यह तथ्य भी चौंकाने वाला है कि जावर माइंस विश्व के प्राचीनतम सीसा, जस्ता व चांदी उत्पादक क्षेत्र है।
यहां 2500 साल पूर्व भी इन धातुओं के खनन के प्रमाण सिद्ध हो चुके हैं। सदियों तक दोहन के बाद भी यहां प्रचुर मात्रा में खनिज उपलब्ध हैं। भूवैज्ञानिक भूगर्भीय व प्राचीनतम खनन व प्रद्रावण अध्ययन के लिए इसे उपयुक्त स्थान मानते हैं।
अमरीकन सोसायटी ऑफ मेटल्स (एएसएम ) ने भी जावर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्रदान की है। एएसएम ने जावर में शिलापट्ट लगाकर इस बात को स्वीकर किया है कि यूरोप में हुई औद्योगिकी क्रांति में जावर का उत्कृष्ट योगदान है।
शिलापट्ट पर बने चित्रों के माध्यम से हजारों साल पहले धातु उत्पादन की विधि को भी सरलतापूर्वक समझा जा सकता है।
सबसे पहले ब्रिटेन की खोज : जावर में किस प्रकार चांदी, जस्ता व सीसा उत्पादन किया जाता था, इसकी इसकी खोज ब्रिटिश म्यूजिम लंदन के क्रेडक पीटी व बड़ौदा विश्वविद्यालय के पुरात्तव विभाग ने की थी। वर्ष 1983 में धातु तैयार करने की प्राचीन भट्टी की खोज के बाद भूगर्भ से धातु निकालने व पिघालने की प्राचीन तकनीक प्रकाश आई। इस खोज के आधार पर जावर वल्र्ड ऑर्केलॉजी में प्रकाशित हुआ।
हो चुके दर्जनों शोध
दर्जनों देशी-विदेशी विद्यार्थी व भूवैज्ञानिक जावर पर शोध कर चुके हैं। जावर क्षेत्र के प्राचीन खंण्डहरों में गोलाईनुमा मिट्टी के पात्रों का प्रयोग किया गया है। ब्रिटिश खोज में पता चला कि यह भवन निर्माण सामग्री नहीं, बल्कि धातु पिघलाने के पात्र थे। बेकार हो जाने पर इनका प्रयोग निर्माण में कर लिया जाता था। इनको अब एएसएम व हिन्दुस्तान जिंक द्वारा यहां निर्मित खुले म्यूजियम में रखा गया है।
ऑर्केलॉजी, खनन, प्रगलन, पुरातत्व महत्व को देखते हुए जावर को यूनेस्को जियो पार्क बनाने के लिए भारत व राज्य सरकार को पुरजोर प्रयास करना चाहिए। यूनेस्को में शामिल करने के लिए जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को पत्र लिखा है।
प्रो. पीएस राणावत, निर्वतमान भूवैज्ञानिक, मोहनलाल सुखाडि़या विवि
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