…तब तक माहौल अच्छा था डॉ. शर्मा ने बताया कि कश्मीर के पहाड़ी क्षेत्र में फेफड़ों के इंफेक्शन से पशुओं, खासतौर पर भेड़ों की मौत हो रही थी। तब भारत सरकार ने वहां लैब खोलने का निर्णय कर 1975 में बरेली मुख्यालय से मुझे प्रभारी बनाकर भेजा था। भारत सरकार ने 13 हैक्टेयर जमीन लीज पर लेकर लाखों रुपए खर्च किए और लैब बनाई। वहां न्यूक्लियर एनर्जी से इंजेक्शन तैयार कर लगाए तो भेड़ों की जान बचने लगी। तब तक कश्मीरी लोग बहुत अच्छे थे।
अंतर लगा तो सिर्फ धारा 370 का
डॉ. शर्मा ने बताया कि 15 वर्ष कश्मीर में रहा। सबकुछ अच्छा था लेकिन धारा 370 खटकती थी। उपलब्ध सरकारी सुविधाओं ने वहां के लोगों को दो वर्गों में बांट रखा था। तब निम्न वर्ग के लोगों को 40 और उच्च वर्ग के लोगों को 80 पैसे किलो चावल मिलते थे। यही चावल उन लोगों के लिए 3 रुपए किलो था, जो भारत सरकार की ओर से वहां जाकर काम करते थे।
हमारे बच्चे जन्म लें, लेकिन उन्हें नहीं हक डॉ. शर्मा और उनकी पत्नी पुष्पा ने बताया, कश्मीर छोड़ा तब छोटा बेटा 8 साल का था। उसका जन्म कश्मीर में हुआ। जन्म प्रमाण पत्र तो बन गया लेकिन लाभ कुछ नहीं था। कश्मीरियों में के समय बच्चे का स्टेट सब्जेक्ट सर्टिफिकेट बनाया जाता है। इसमें बच्चे के दोनों हाथों के निशान लिए जाते हैं। यह सर्टिफिकेट कश्मीर की नागरिकता की पहचान होता है। सभी सुविधाएं उससे ही मिलती हैं।
एक-एक कर बना रहे थे निशाना
रामजीलाल और पुष्पा ने बताया कि हमने कश्मीर को जन्नत के रूप में भी देखा, बाद में जहन्नुम बनते भी। ऐसा भी दौर था जब वहां देर रात तक महिलाएं गहने पहनकर बेखौफ घूमती थीं। पर्यटक बेधड़क आ-जा सकते थे। फिर जनवरी 1989 से पाकिस्तान प्रायोजित अलगाववादी सोच पनपने लगी। आतंकी हमले शुरू हो गए। कश्मीरी मुस्लिमों का माइंड वॉश किया जाने लगा। भारत सरकार के विभिन्न विभागों के अधिकारियों को टारगेट कर उनकी हत्या की जाने लगी। हमारी आंखों के सामने ऑल इंडिया रेडियो के डायरेक्टर और सीबीआइ ऑफिसर को गोली मारी गई। सीबीआइ अफसर की पत्नी ने कहा कि मुझे भी गोली मार दो लेकिन आतंकी यह कहकर चले गए कि तुम्हें तो इसके लिए रोना है, तुम्हें भी मार दिया तो यहां रोने की आवाज किसकी सुनेंगे। आतंकी हमें भी मारना चाहते थे लेकिन हम बच निकले।
धमकाते थे आतंकी वर्ष 1990 में हालात ऐसे हो चले थे कि सुबह-शाम लाउड स्पीकर से कहा जाता कि काफिरों को बाहर निकालो, इनकी कोई मदद नहीं करेगा। सब्जी वालों के पास सब्जी तो होती थी लेकिन वह हमें देने से इनकार कर देते थे। हमें कोई सामान नहीं बेचता था। कोई कुछ देता भी तो छुपकर। अलगाववादी और आतंकी स्कूलों में आग लगा देते थे। कई स्कूली बच्चों को हथियार देकर भेजते थे।
पता नहीं बताया तो मकान मालिक को गोली मारी
डॉ. शर्मा और पुष्पा ने बताया कि हम पहले श्रीनगर के करणनगर में रहते थे। सितम्बर 1989 में किराए का मकान बदला तब आतंकी हमें ढंूढ रहे थे। पुराने मकान मालिक पीएन कॉल ने हमारा नया पता नहीं बताया तो आतंकियों ने उनके पैर में गोली मार दी।
शर्मा दम्पती ने बताया, कश्मीर से भागे तो इंस्टीट्यूट के बरेली स्थित मुख्यालय आ गए। हमारे पास कुछ नहीं था। किसी ने परात दी तो किसी ने चकला-बेलन। संस्था के हीटर पर खाना बनाना पड़ा था। छह माह बाद बीएसएफ के संरक्षण में कश्मीर के करणनगर स्थित अपने मकान पर पहुंचे तो वह खंडहर हो चुका था। वहां कुछ नहीं बचा था। जो बचा था, शायद लोग लूट ले गए थे। कश्मीर छोड़ा तब बेटी शीतल दसवीं, बेटा विवेक नौवीं और छोटा बेटा भास्कर आठवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। स्कूल के दस्तावेज भी जल गए थे। यहां स्कूलों में दाखिला कराने में बड़ी परेशानी हुई थी।
दुर्भाग्य… सेना के पास अपनी जमीन नहीं डॉ. शर्मा का कहना है कि देश की सुरक्षा में लगी सेना के पास वहां खुद की जमीन नहीं है। भारत सरकार काफी पैसा खर्च करने के बाद भी वहां लीज पर जमीन लेती है। लैब खोली तब भी कश्मीर सरकार ने इस शर्त पर जमीन लीज पर दी कि लीज खत्म होने पर उस पर बनाया गया ढांचा कश्मीर सरकार का होगा।