जबलपुर

जमींदार की इस बेटी की पहचान बन गई थी सफेद-सूती साड़ी

गहनों, कपड़ों का बहुत शौक़ होते हुए भी वे न चूड़ी पहनतीं थीं और न बिंदी लगातीं थीं

जबलपुरJan 19, 2018 / 11:57 am

deepak deewan

republic day,

जबलपुर। ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ क्या आपने यह कविता सुनी है? यदि नहीं तो – बुंदेलों हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी- यह रचना तो सुनी-पढ़ी होगी ही। झांसी की रानी के माध्यम से लाखों युवक-युवतियों को स्वतंत्रता संग्राम में खुद को समर्पित कर देने के लिए प्रेरित करनेवाली उत्कट देश प्रेम की यह कविता सुभद्रा कुमारी चौहान की है। विवाह के बाद जबलपुर आ बसीं इस कवियित्री के कंठ की इस पुकार ने युवाओं के हृदय में मानो आग फूँक दी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी- जब देशभर में गूंजने लगी तो अंग्रेज थर्रा उठे। उन्होंने इस रचना को जब्त कर लिया पर कवियित्री अपना काम कर चुकीं थीं। आज भी बच्चे-बच्चे को यह कविता याद रहती ही है।

रहन-सहन में सादगी, पर थीं क्रांतिकारी
सुभद्रा कुमारी का जन्म इलाहाबाद के पास के निहालपुर गांव में हुआ था। उनके पिता जमींदार थे पर सुभद्रा माई सादगी की प्रतिमूर्ति थीं, उनके ह्दय में देशप्रेम की लहरें हिलोरें लेती थीं। कम उम्र में ही वे कविता लिखने लगीं और खंडवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह के साथ विवाह के बाद वे जबलपुर आ गई थीं। १920-21 में चौहान दंपत्ति अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य के रूप मेें घर-घर में कांग्रेस का संदेश पहुँचाने में लगे थे। उन्हें गहनों और कपड़ों का शौक तो बहुत था पर वेे न तो चूड़ी पहनतीं थीं और न ही बिंदी लगातीं थींं। वे बिना किनारी वाली सूती साड़ी पहनती थीं जोकि सुभद्रा माई की पहचान ही बन गई। उनकी वेशभूषा देखकर गांधीजी ने उनसे पूछ ही लिया- , ‘बेन! तुम्हारा ब्याह हो गया ?’ सुभद्रा ने जब हामी भरी तो उन्होंने सिन्दूर नहीं लगाने और चूडिय़ाँ नहीं पहनने पर उन्हें डांटा भी।

पहली महिला सत्याग्रही
जबलपुर के ‘झंडा सत्याग्रह’ में शामिल होकर सुभद्रा माई पहली महिला सत्याग्रही बनीं। वे उन दिनों रोज़ सभाएँ लेती थीं। इस सत्याग्रह में उनकी भूमिका देख उन्हें लोकल सरोजिनी नायडू कहा जाने लगा था। राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत सुभद्रा माई देश पर कुर्बान हुए वीरों को नौजवानों का प्रेरणा स्रोत मानती थीं।

झाँसी की रानी
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

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