Pt. Hariprasad Chaurasia : जब तक सांस चलेगी, हरि का रियाज चलता रहेगा…पं. हरिप्रसाद चौरसिया
मैं तो अब भी बांसुरी बजाना सीख रहा हूं। जब तक सांस चलेगी हरि का रियाज चलता रहेगा। यह ईश्वर से जोडऩे का जरिया है। नई पीढ़ी इस पर ध्यान लगाए तो उसे मन के भीतर बैठे भगवान के दर्शन अवश्य होंगे।
Pt. Hariprasad Chaurasia : मैं तो अब भी बांसुरी बजाना सीख रहा हूं। जब तक सांस चलेगी हरि का रियाज चलता रहेगा। यह ईश्वर से जोडऩे का जरिया है। नई पीढ़ी इस पर ध्यान लगाए तो उसे मन के भीतर बैठे भगवान के दर्शन अवश्य होंगे। यह बात सुप्रसिद्ध बांसुरी वादक पद्म विभूषण पं. हरिप्रसाद चौरसिया ने पत्रिका से खास बातचीत में कही। उन्होंने संगीत, समाज और राजनीति पर बेबाकी से अपनी बात रखी।
Pt. Hariprasad Chaurasia : गुरुकुल परंपरा आज भी कितनी प्रासंगिक हैं
संगीत साधना है, योग है, इसके लिए हर शहर में गुरुकुल होना चाहिए। यहीं से जिंदगी की तालीम मिलती है। जिस तरह धार्मिक स्थल बनाने के लिए लाखों-करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं, उसी तरह गुरुकुल बनाने के लिए प्रयास होना चाहिए। इसी से संस्कार, संस्कृति और परंपरा जीवंत रहेगी।
Pt. Hariprasad Chaurasia : बांसुरी वादन नहीं करते तो क्या करते?
हमारे बांसुरी वादन से परिवार खुश नहीं था। पहलवानी करने पर ही जोर देते थे। जंगल में छिपकर पढ़ाई के बहाने बांसुरी बजाना सीखते थे। परिवार वाले कहते थे, कहां बांसुरी बजाने में लगे हो बड़े होकर भीख मांगोगे। बांसुरी छुड़ाकर रख लेते थे। बांसुरी के सुरों से ही मुझ पर हरि कृपा हुई। पहलवान कैसे होते यह तो सोच भी नहीं सकते।
Pt. Hariprasad Chaurasia : अब संगीत के घराने नहीं बनते, ऐसा क्यों?
ऐसा नहीं है, दो गुरुकुल हमने ही बनाए, जहां बड़ी संख्या में सुर साधक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। बांसुरी वादन पुरुषों तक ही सीमित नहीं रह गया है। लड़कियां भी इस विधा में बेहतर काम कर रही हैं।
Pt. Hariprasad Chaurasia : ओशो से कैसे मुलाकात हुई और कितना प्रेरित किया?
ओशो से हमारी मुलाकात पागल बाबा के आश्रम में हुई थी। वहां पर मिठाई खाने जाते थे। ओशो भी आते और साथ बैठकर नाश्ता-खाना करते, बातें करते थे। कहां पता था कि वो गले में हाथ डालकर चलने वाला दोस्त एक दिन विश्व विख्यात आचार्य रजनीश ओशो बन जाएगा। हम तो आज भी छोटे से आदमी बनकर उन्हें याद करते हैं।
Pt. Hariprasad Chaurasia : अभी भेदभाव की खबरें आती हैं, पहले भी ऐसा था क्या?
जाति-धर्म, भेदभाव यह तो कभी सोचा नहीं था। बाबा अलाउद्दीन खां के मैहर घराने से दीक्षा ली थी, ऐसा कितनी बार होता था कि बाबा के एक छोटे कमरे में ही पं. रविशंकर, वे और कई और संगीतज्ञ एक-एक कोना पकडकऱ सो जाते थे। सबने देश-दुनिया में नाम बनाया। बाकी तो राजनीति की बातें हैं। युवाओं को इससे परे हटकर एकाग्रता के साथ संगीत और खेल में मन लगाना चाहिए।
Pt. Hariprasad Chaurasia : जबलपुर को कैसे देखते हैं, कितना जुड़ाव है
जबलपुर आकर मां नर्मदा में छलांग लगाने का मन होने लगता है। पहले जब भी यहां आता था तो नर्मदा के शीतल जल में छलांग लगाना बहुत पसंद था। अब दूर से भी दर्शन करके मन प्रसन्न हो जाता है। अबकी बार भी नर्मदा दर्शन करने जरूर जाऊंगा।
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