unique faith in tribal traditions in madhya pradesh
इंदौर. दिवाली के मौके पर मध्यप्रदेश के कई क्षेत्रों में अजीब रीति रिवाजों का पालन किया जाता है। खासतौर से आदिवासी क्षेत्रों में दिवाली के दूसरे दिन गोवर्धननाथ मंदिर के सामने मन्नतधारी गो माता के पैरों तले लेटकर अपनी मन्नतें उतारते हैं। कई बार गाय के ऊपर चढ़कर निकलने से के बावजूद मन्नतधारी लोग घायल नहीं होते है। ऐसा एक बार का किस्सा नहीं है, यहां हर बार पूरी अस्था से मन्नत रखने वाले लोगों को कोई परेशानी नहीं आती है, ऐसी मान्यता है। इस परंपरा को गाय गौहरी कहा जाता है। दिवाली के दूसरे दिन यह पर्व मनाया जाता है। खासतौर से धार, झाबुआ, आलीराजपुर, पेटलावद सहित अन्य आदिवासी अंचलों में यह रस्म कई दशकों से निभाई जा रही है। यहां लोग दूर-दूर से आते हैं और दु:ख, तकलीफ, लम्बी बीमारी, विवाह समस्या, संतान प्राप्त, आजीविका से लेकर सभी प्रकार की समस्याएं दूर करने के लिए गाय गौहरी की मन्नत मांगते हैं।
परंपराओं की लता में आधुनिकता के फूल खिलते हैं। लंगोट से जींस पहनने तक के सफर में आज भी पुरखों की बनाई
परंपराओं को जिया जा रहा है। ऐसी कुछ परंपराओं और त्योहारों से हम आपको
रूबरू करा रहे हैं। दिवाली के मौके पर मन्नतधारी गो माता के पैरों तले लेटकर अपनी मन्नतें उतारते हैं। नवरात्री के पावन पर्व पर माताजी की घटस्थापना के साथ
ही ग्रामीण अंचलों में देवी, देवताओं को पहली फसल अर्पण कर नवाई की जाती
है। खेत में हल जोतने वाला किसान नवाई के पहले खेतों में लगी सब्जी के साथ
ही फसल का भी उपयोग नहीं करता। भुट्टे सहित अन्य फसलों पहले देवी देवताओं
को चढ़ाई जाती है।
जिले में घूमे गल डेहरा
जिलेभर
में गल देवता के समक्ष मन्नतधारी अपनी-अपनी मन्नतें उतारते हैं। गल डेहरा
तक ग्रामवासी ढोल- मांदल बजाते नाचते-गाते पहुंचते हैं। मन्नत उतारने के
दौरान भी नाच-गाने का दौर चलता रहता है। मन्नते उतारने के बाद लोग
नाचते-गाते अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं।
गौमाता से मांगते हैं क्षमा
पड़वे
के दिन गोवर्धननाथ मंदिर के सामने मन्नतधारी गो माता के पैरो तले लेटकर
अपनी मन्नतें उतारते हैं। गाय गोहरी पर्व शहर सहित ग्रामीण अंचलों में बड़ी
धूमधाम से मनाया जाता है। दीवाली के अगले दिन मनाए जाने वाले इस पर्व को
लेकर सुबह से ही हलचल दिखाई देने लगती है। पर्व का शुभारंभ गोबर से बनाए गए
गोवर्धन पर्वत की पूजन कर किया जाता है। गाय गोहरी पर्व पर सुबह घरों पर
गोवर्धन पूजा की जाती है। इसके बाद गायों को रंगबिरंगे रंगों से रंगकर उनके
सींगों पर मोरपंख आदि बांध कर उन्हें सजाया जाता है। रंगबिरंगी सजी गायों
के पीछे पटाखे छोड़ते हुए उन्हें दौड़ाया जाता है। पीछे-पीछे मवेशी पालक
दौड़ते हैं। मंदिर के सामने गाय का गोबर बिछाया जाता है। जिसमें नए वस्त्र
पहने मन्नतधारी पेट के बल लेट जाते हैं। पटाखों की आवाज से दौड़ती गाय
मन्नतधारियों के उपर से गुजरती हैं। महिला पुरूष भजन गाते हैं। ग्रामीण
अंचलों से हजारों की संख्या लोग उपस्थित होते हैं।
दौड़ाने के लिए करते हैं आतिशबाजी
पशु
पालक गायों को रंगबिरंगे रंगों से रंगकर मोरपीछिया और बैलों को फूंदे से
सजाते हैं। इसके बाद उन्हें गाय गोहरी स्थल पर ले जाया जाता है। जहां पर
पूजा पाठ करने के बाद गायों को दौड़ाने के लिए उनके पीछे आतिशबाजी की जाती
है। इससे गाय दौड़ती हैं, मंदिर के सामने मन्नतधारी गोबर के ऊपर लेटते हैं,
जिनके उपर से होकर गाय गुजरती हैं। अगर गाय इन मन्नतधारियों को कुचलती हुई
निकल जाए, तो वे खुद को खुशकिस्मत समझते हैं।
गाय को पूज्य मानते र्हैं
वैसे
तो इसे मन्नत मांगने व उतारने वाला पर्व माना जाता है। लेकिन इस बारे में
जानकारों की कुछ अलग राय भी है। उनका मानना है कि गाय गोहरी पर्व दरअसल
ग्वालों द्वारा मनाया जाने वाला पर्व है। आदिवासी बोली में गाय गोहरी का
अर्थ है गाय को चराने वाला। आदिवासी ग्वाले गाय के नीचे लेटकर उनसे इसलिए
क्षमा मांगते हैं, क्योंकि पूरे साल उन्होंने चराने के दौरान मारा-पीटा
जाता है। आदिवासी गाय को पूज्य मानते हैं।
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झाबुआ में मध्यप्रदेश के चारों महानगर भोपाल, इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर से
ज्यादा लिंगअनुपात है। यहां हजार लड़कों पर 989 लड़कियां हैं।
– शादी में लड़की को दहेज दिया जाता है।
– दोनों जिलों में लड़कों के भ्रूण मिल सकते हैं, पर लड़कियों के नहीं।
-किसी भी विवाद यहां तक कि हत्या तक पर तोड़ (संझौता) होता है। जिसमें मांगी गई रकम पर केस दर्ज नहीं कराया जाता है।
-सोने को पसंद नहीं किया जाता है। चांदी के गहने पहनते हैं।
-शादी में ताड़ के पेड़ दिए जाते हैं। जिसे कोई दूसरा छू भी ले तो खूनी संघर्ष तक हो जाता है।
चढ़ाई फसल पर बच्चों का अधिकार
किसान
पहली फसल सबसे पहले सावन माता को चढ़ाते हैं। इसके बाद हाथीपावा,
बजरंगबली, वगाजा देव, हालूण देव, शीतला माता, ओखा बाबजी, लालबाई माता,
भवानी माता सहित चौदह बहनों को फसल चढ़ाते हैं। नवाई करने गए ग्रामीणों के
साथ बड़ी संख्या में बच्चे भी शामिल होते हैं। जो चढ़ाई गई फसल उठाकर गांव
की पहाड़ी या अन्य स्थान पर लेकर जाते हैं और भुट्टे आदि सेककर खाते हैं।
इसके बाद पोहोई खेल खेलते हैं, पोहोई खेल हॉकी के समान होता है। जिसमें
लकड़ी की गेंद बनाई जाती है और पेड़ों की हॉकीनुमा लकडिय़ां काटकर हॉकी के
समान दो दल बनाकर खेला जाता है।
भुट्टे के व्यंजन व भिंडी बनती है
नवाई
करने के बाद घरों में भुट्टे के व्यंजन बनाने के साथ ही भिंडी बनाई जाती
है। जिसका देवी-देवताओं और पुरखों को होम देने के बाद हल चलाने वाले के साथ
ही परिवार वाले भी सेवन करने लगते हैं। नवाई के पूर्व बच्चों को भुट्टे,
ककड़ी आदि खाने की छूट रहती है। ग्रामवासियों ने बताया कि नवाई के लिए
जंगलों में ही देवी-देवता विराजित रहते हैं। जहां बड़े-बड़े पेड़ों के
अलावा कुछ नहीं होता। मंदिर वगैरह नहीं बनते हैं, पुरखों से ही यही नवाई
करते करते आ रहे हैं। शहर व गांव में जो मंदिर बने हैं वहां पर भी फसल
चढ़ाई जाती है।