उन दिनों साइकिल से, पैदल भागते, चोरी-छिपे पत्रिका बांटने का जज्बा कुछ और ही रहता था। अंग्रेजों ने जेल में ऐसे डराते कि रोंगटे खड़े हो जाते। पांडे ने बताया, आंदोलन से जुडऩे की प्रेरणा 1935 में गांधी को देखकर मिली। उस दिन मैं चंद्रावतीगंज (फतेहाबाद) से इंदौर आया था। रेलवे स्टेशन के पास भीड़ देखी तो वहां पहुंचा। देखा गांधी जी भाषण दे रहे थे। उनका भाषण सुनकर इंदौर में आजादी आंदोलन से जुड़ गया।
800 चिट्ठी – पत्रिका लिखकर बांटीं। एक दिन गांव में पत्रिका बांटते हुए अंग्रेज अधिकारी ने पकड़ लिया। हरिसिंह पाटिल, धन्नालाल भाई भी साथ थे। खूब डराया-धमकाया, डंडे भी मारे। एक अफसर ने तो खड़ा करके गोली चलाई, जो कान के पास से निकली तो जान सूख?गई, लेकिन आजादी के जज्बे में हर प्रताडऩा तोहफा लगती थी। मौका पाकर भाग निकले। भूमिगत हो गए और प्रजामंडल के साथ काम करने लगे। युवाओं को संदेश देते हुए पांडे कहते हैं, आजादी मुश्किल से मिली है, संभालकर रखें।
विडंबना रही पांडे के संघर्ष को आजादी के बाद सरकार ने नजरअंदाज किया। सरकार को खूब चिट्ठियां लिखीं। हल नहीं निकला तो हाई कोर्ट की शरण ली। सरकारी महकमे ने आवेदन की जांच में 16 साल लगा दिए। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई, तब जाकर संघर्ष को सम्मान मिल सका।