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हुबली

जिन्दगी, मैं तुझे नाम क्या दूं?

Dr. Pratibha Singh

हुबलीJun 23, 2024 / 05:37 pm

ASHOK SINGH RAJPUROHIT

Dr. Pratibha Singh

Dr. Pratibha Singh

सावन की पहली बारिश, फागुन की खुली धूप।
हरियाली सी सुन्दर, या भूकम्प सी कुरूप।
चिडिय़ों का कलरव, बद्जुबा सी कोई गाली।
कभी दु:ख की छाया, कभी उमंगें दुल्हन वाली।
मंदिर की बजती घंटी, या मस्जिद की अजान।
हर कदम एक जंग, हौंसलों की उड़ान।
तुझे कोई एक पहचान क्या दूं?
जिन्दगी, मैं तुझे नाम क्या दूं?
यादों के गलियारे में, खुलता कोई झरोखा।
जीवन का यथार्थ, या उम्मीदों का धोखा।
खिड़की से झांकती, आशाओं की धूप।
कभी गमगीन कभी सलोना, तेरा रंग रूप।
तेरे हर पल को, मेहनत से संजोया है।
बड़ी मशक्कत से इसे, इक लय में पिरोया है।
तूं ही बता अब इसके दाम क्या दूं?
जिन्दगी, मैं तुझे नाम क्या दूं?
आता और जाता ये, लोगों का मेला है।
भीड़ हर कहीं पर, हर कोई अकेला है।
सवालों और जवाबों का, उलझा सा फलसफा।
कभी तपती मरुस्थल, कभी कहकशां।
मिलन का उल्लास, कभी बिछुडऩे की उदासी।
कभी झरने सी हंसी, कभी-कभी रुआंसी।
हंसी पे ही ठहर जाए, वो विराम क्या दूं?
जिन्दगी, मैं तुझे नाम क्या दूं?
हर सांस से उम्मीद, हर रिश्ते में फरमाइश।
अजब सी कश्मकश, हर कदम पे आजमाइश।
कभी खुद को गुलशन, कभी सहरा में पाया है।
कभी लगे जिंदगी, एक ठहरा सा साया है।
सांसों को जीने की, एक छोटी सी कवायद लगे।
कभी इन सांसों से, खुद को ही शिकायत लगे।
सुकून से भरा कोई आराम क्या दूं?
जिन्दगी, मैं तुझे नाम क्या दूं?
महफिल में हंसे कभी, तन्हाई में रो लिए।
जिस राह ले चली, हम उसी पे हो लिए।
कभी तुझमें दिखी मुझे, करीब की सहेली।
कभी बनी अनजान तूं, अबूझ सी पहेली।
कभी फिसलती जिंदगी, कभी संवरती जिंदगी।
नन्हे-नन्हे लम्हे इसके, पलकों में पो लिए।
सम्हाले जो लम्हों को, वो सामान क्या दूं?
जिन्दगी, मैं तुझे नाम क्या दूं?
बच्चे की मुस्कुराहट में, चूड़ी की खनखनाहट में।
कभी शांत समुन्दर, कभी बादल की गडग़ड़ाहट में।
कहीं दु:ख की चादर, कहीं सुख की शहनाई।
उजियारा करते दिए कहीं, बल्बों की जगमगाहट में।
अतीत की जद्दोजहद, भविष्य की योजना।
रोज सुबह उठके, वर्तमान को सींचना।
इक तेरी परिभाषा, तुझे परिमाण क्या दूं?
जिन्दगी, मैं तुझे नाम क्या दूं?
कभी शीशे सी साफ, कभी लगे अस्पष्ट है।
निरंतर सब दौड़ते, पर हर कोई अतृप्त है।
कभी हंसती, कभी रोती, कभी बड़ी, कभी छोटी।
गंगा सी पावन कभी, कभी कीचड सी खोटी।
हर वक्त हर हालात में, तुझे निहारते रहे।
कभी तनहा, कभी संग, तुझे संवारते रहे।
इससे बड़ा अब कोई सम्मान क्या दूं?
जिन्दगी, मैं तुझे नाम क्या दूं?
जिंदगी तुझे काश, खुलकर जियूं कभी।
तेरी हर बूँद को, खुल कर पियूं कभी।
बाहर से खामोशी, विचारों में अंतरद्वंद है।
कभी कसमसाहट, कभी लगे स्वच्छंद है।
अनमोल है तूं फिर भी, तेरी कीमत जानती हूं।
खुदा का सुन्दर तोहफा, मैं ये भी मानती हूं।
जिंदादिली को तेरी सलाम क्या दूं?
जिन्दगी, मैं तुझे नाम क्या दूं?
मैं तुझे नाम क्या दूं?
मैं तुझे नाम क्या दूं?
डॉ. प्रतिभा सिंह, पीजीटी (जीवविज्ञान) कारवार

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