कानपुर में 8 दिनों तक यूं ही नहीं लोग खेलते हैं होली, आजादी के संघर्ष के दिनों में हुआ था यह कांड
नई दिल्ली। वैसे तो होली का त्यौहार आने से पहले ही लोग रंग खेलना शुरू कर देते हैं, लेकिन कानपुर में होलिका दहन के बाद लोग रंग खेलना शुरू कर देते हैं और लगभग एक हफ्ते तक यह सिलसिला चलता रहता है। हैरान कर देने वाली बात तो यह है कि स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी इस रोचक कहानी के बारे में आज भी ज्यादातर लोगों को पता नहीं है।
साल 1942 से यहां इस रीति का पालन होता आ रहा है। इसकी शुरूआत यहां हटिया नामक इलाके से हुई थी जो उस वक्त हार्ट आफ द सिटी के रूप में मशहूर था। उस वक्त वहां लोहा, कपड़ा और गल्ले का व्यापार हुआ करता था।
उन दिनों क्रान्तिकारी वहां आकर खूब गप्पे लड़ाया करते थे। तब के समय में गुलाब चंद सेठ हटिया के सबसे बड़े व्यापारी हुआ करते थे और वह होली का आयोजन वहां काफी बड़े पैमाने पर करते थे।
एक बार हुआ कुछ यूं कि होली के दिन कुछ अंग्रेज अधिकारी घोड़े पर सवार होकर वहां पहुंचे। अंग्रेजों ने लोगों को होली बंद करने का आदेश दिया। गुलाब चंद सेठ ने उनकी बात मानने से साफ इंकार कर दिया।
इस पर उन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। जागेश्वर त्रिवेदी, बुद्धूलाल मेहरोत्रा, पं.मुंशीराम शर्मा सोम, श्यामलाल गुप्त’पार्षद’,बालकृष्ण शर्मा नवीन, रघुबर दयाल और हामिद खां को भी इस गिरफ्तारी के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में सरसैया घाट स्थित जिला कारागार में डाल दिया गया।
जब लोगों को इस बात की भनक लगी तो सभी ने मिलकर इसका विरोध किया। आठ दिन तक वहां के निवासियों ने आंदोलन किया जिसे देखकर मजबूरन अंग्रेज अधिकारियों को उन्हें छोड़ना पड़ा। इन लोगों को जिस दिन कैद से मुक्त कराया गया उस दिन अनुराधा नक्षत्र था।
ऐसे में होली के बाद अनुराधा नक्षत्र के दिन का महत्व उनके लिए और बढ़ गया और सबने खुशी से उस दिन मिलकर एक-दूसरे को रंग लगाया। जेल के बाहर लोगों ने मिलकर होली के त्यौहार का पालन किया।
उसी दिन शाम को गंगा किनारे सरसैया घाट पर मेला लगा और तभी से कानपुर में इस रिवाज का चलन आज तक होता आ रहा है।
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