शरीर में जितने भी प्रकार के दोष होते हैं। उनमें त्रिदोष होता है। वात, पित्त और कफ। दोषों का संबंध भी रस से होता है।
रस दोष बढ़ता दोष घटता
मधुर कफ वात, पित्त
अम्ल पित्त, कफ वात
लवण पित्त, कफ वात
कटु पित्त, वात कफ
तिक्त वात पित्त, कफ
कषाय वात पित्त, कफ
ऋतु के अनुसार ही होते हैं रस आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान में रसों की उत्पत्ति ऋ तु के अनुसार ही मानी गई है। हमारी छह ऋतुएंं और छह ही रसों की उत्पत्ति ऋतुओं से होती है। जैसे हेमंत ऋतु में मधुर रस, शरद में लवण रस, वर्षा ऋतु में अम्ल रस, ग्रीष्म में कटु, बसंत ऋतु में कषाय और शिशिर ऋतु में तिक्त रस की उत्पत्ति होती है। ऋतुओं के अनुसार ही इनका सेवन करना चाहिए।
रसों के बढऩे-घटने से होने वाले रोग सभी छह रसों से ही हमारे शरीर का अच्छी तरह से संचालन होता है किंतु इनके अत्यधिक या कम प्रयोग से बीमारियां होती हैं। जैसे अधिकतर लाइफ स्टाइल से जुड़ी बीमारियों का कारण मधुर रस ज्यादा खाना है। इनमें मोटापा, डायबिटीज, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, थकान, आलस्य आदि है। कई रिसर्च के अनुसार हम ज्यादा मधुर रस वाली चीजें खा रहे हैं।
अम्ल रस के अधिक उपयोग से अम्लपित्त या एसिडिटी अल्सर चाहे वह आमाशय का अल्सर हो या आंत्र गत अल्सर हो सकते हैं। इनके कम होने सेे उत्साह की कमी, भोजन के प्रति अरुचि, घावों को भरने में देरी होती है।
लवण रस की अधिकता से उच्च रक्तचाप, अंगों में सूजन,पुरुषत्व में कमी होना आदि लक्षण जबकि इसकी कमी से शरीर में अधिक नींद शिथिलता, सूनापन के लक्षण आते हैं। कटु रस वाले पदार्थ भूख और पाचन शक्ति ठीक रखते हैं। आंख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियां ठीक रहती हैं। मोटापा कम होता है। लेकिन इसकी अधिकता से बेहोशी, घबराहट, थकावट, कमजोरी आदि हो सकती है।
तिक्त रस वाले पदार्थ विषैले प्रभाव, पेट के कीड़ों, कुष्ठ, खुजली, बेहोशी, जलन, प्यास, त्वचा के रोगों, मोटापे व मधुमेह आदि को दूर करते हैं। लेकिन इसकी अधिकता से शरीर में रस, रक्त, वसा, मज्जा तथा शुक्रकी मात्रा घटती है। कमजोरी-थकान होती है।
कषाय रस घाव को जल्दी भरता, हड्डियों को सही जोड़े रखते हैं। इसमें धातुओं और मूत्र आदि को सुखाने वाले गुण भी होते हैं। यही कारण है कि कषाय रस आहार से कब्ज की दिक्कत बढ़ती है। इसकी अधिकता से मुंह सूखना, हृदय में दर्द, पेट फूलना, बोलने में रुकावट, पक्षाघात और लकवे की आशंका रहती है।