आज से 505 वर्ष पूर्व ग्वालियर जिले के बेहट गांव के मुकुंद पांडे के घर तानसेन का जन्म हुआ था। तानसेन का वास्तविक नाम रामतनु पांडे (तानसेन) था। तब ग्वालियर पर राजा मानसिंह तोमर का शासन था। उनके पास तानसेन ने संगीत की तालीम हासिल की, बाद में तानसेन वृंदावन चले गए। वृंदावन पहुंचकर तानसेन ने स्वामी हरिदासजी और गोविंद स्वामी से संगीत की उच्च शिक्षा हासिल की। संगीत में पारंग होने के बाद तानसेन शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत खां के पास रहे। इसके बाद रीवा के बांधवगढ़ के राजा रामचंद्र की राजसभा में उच्चतम स्थान पर रहे।
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अकबर के नव रत्नों में हुए शामिल
तानसेन के जब चर्चे होने लगे तब मुगल सम्राट अकबर ने अपने दरबार में बुलाया और अपने नवरत्नों में शामिल कर लिया। तानसेन के बारे में अबुल फजल ने ‘आइन ए अकबरी’ में लिखा था कि तानसेन के बारे में उनके जैसा गायक हिन्दुस्तान में पिछले एक हजार सालों में कोई दूसरा नहीं हुआ।
कई रागों का निर्माण किया
तानसेन के कई ध्रुपदों की भी रचना की। इसके साथ ही तानसेन ने भैरव, मल्हार, रागेश्वरी, दरबारीरोडी, दरबारी कानाडा, सारंग जैसे कई रागों का निर्माण भी किया। उन्होंने भारत में शास्त्रीय संगीत के विकास में अहम योगदान दिया। संगीत की ध्रुपद शैली भी तानसेन की ही देन है।उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत का जनक भी माना जाता है।
फिल्में भी बनीं
तानसेन के जीवन पर आधारित कई फिल्में भी बनी। इसमें 1943 में तानसेन, साल 1952 में बैजू बावरा, 1962 में संगीत सम्राट तानसेन प्रमुख हैं।
मृत्यु को लेकर भ्रम
तानसेन की मृत्यु 26 अप्रैल 1586 को दिल्ली में हुई थी। और अकबर उनके सभी दरबारी उनकी अंतिम यात्रा में शरीक हुए थे। जबकि दूसरे सूत्रों के मुताबिक तानसेन की मृत्यु 6 मई 1589 को हुई थी। उन्हें ग्वालियर जिले के बेहटा जन्म स्थली में ही दफनाया गया था।
जानवर भी मुरीद
तानसेन बचपन से बेहट के जंगलों में गाते थे, तो उनके संगीत को सुनने के लिए जंगली जानवर भी एकत्र हो जाते थे। एक बार बादशाह अकबर ने सफेद हाथी को पकड़वाया और उसे महल में लाकर कैद कर लिया। राजा अकबर की इच्छा थी कि इस सफेद हाथी की सफारी करना है, लेकिन कोई भी इस हाथी को कोई भी काबू नहीं कर पा रहा था। तब राजा ने तानसेन को इसकी जिम्मेदारी सौंपी। तानसेन ने गायन से उसे शांत कर दिया। बाद में यह हाथी अकबर की शाही सवारी का हिस्सा बना रहा।
इन रागों में महारात थी
तानसेन के बारे में बताया जाता है कि उनकी कुछ रागों में ऐसी महारत हासिल थी कि जब राग दीपक सुनाने को कहा जाता तो उन्होंने मना कर दिया, क्योंकि उन्हें इस राग के दरबार में गाने के दूरगामी परिणाम पता थे, लेकिन जब अकबर नहीं माने तो उन्होंने इस राग को सुनाया। इस राग के गाते ही दरबार के सारे दिए तेज लौ के साथ जलने लगते थे। सभी लोग गर्मी के कारण व्याकुल हो जाते थे, लेकिन तानसेन अपने साथ बेटी को ले गए थे। बाद में उन्होंने मेघ मल्हार गाया तो दरबार में ठंडक हो गई थी।