मैसूर जैसा था ग्वालियर के दशहरे के वैभव, आज भी राजघराना निभाता है शमी पूजन की परंपरा, देखें वीडियो
उनके साथ उनके परिवार के सदस्य भी इस कार्यक्रम में शामिल हुए। इसके बाद वह सीधे राजसी पोशाक में गोरखी स्थित अपने कुलदेवता की पूजा करने देवघर पहुंचे, जहां उन्होंने पूजा-अर्चना की। सिंधिया के साथ उनके पुत्र महाआर्यमन भी थे। इसके बाद शाम को २०० साल पुरानी अपनी परंपरानुसार पूजा के लिए मांढरे की माता पर पहुंचे। यहां पुलिस बैंड ने परंपरागत अगवानी की। इसके बाद विधि के साथ चबूतरे पर देव स्थापित करने के बाद उन्होंने शमी पूजन किया। पूजन उपरांत उन्होंने राजघराने की तलवार उठाई और उसे शमी वृक्ष से स्पर्श किया। स्पर्श करते ही सोने का स्वरूप मानी जाने वाली इन शमी की पत्तियों को सरदारों ने लूटा और सिंधिया और उनके पुत्र को भेंट दी।Dussehra 2019 : ज्योतिरादित्य ने शाही परंपरा के अनुसार देवघर में की पूजा, देखें वीडियो
यहां बता दें कि सिंधिया घराने में दशहरे का पर्व बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। शाम को शमी पूजा के साथ ही दशहरे के दूसरे दिन भी सिंधिया पैलेस में मेल मुलाकात का सिलसिला चलेगा। इससे पहले सुबह ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी शाही पंरपरा के अनुसार दशहरे की पूजा की। वे सुबह गोरखी बाड़ा स्थित देवघर पहुंचे,जहां उन्होंने दशहरा की विशेष पूजा की। इस दौरान ने अपने पांरपरिक भेष-भूषा में दिखाई दिए। इसके बाद वह शाम को मांढरे की माता के मंदिर के पास वाले मैदान में शमी पूजन भी किया। इस दौरान सिंधिया परिवार और मराठा सरदारों के परिवार मौजूद रहे।यहां हाथी-घोड़ों पर सवार होकर निकला करते थे राजा और सरदार, अब ऐसे मनाया जाता है दशहरा
राजसी पोशाक में करते हैं शमी पूजन
दशहरे के दिन सिंधिया राजघराने की परंपरानुसार शाम को शमी पूजन किया जाता है। इसमें राजघराने के परिवार के मुखिया द्वारा तलवार को शमी के पेड़ से स्पर्श कराया जाता है, इससे गिरने वाली शमी की पत्तियों को सिंधिया रियासत में रहे सरदार लूटते हैं, शमी की पत्तियों को सोने का प्रतीक माना जाता है। मांढरे की माता मंदिर पर लगे शमी के वृक्ष का हर साल पूजन किया जाता है। इसके लिए सिंधिया परिवार के मुखिया राजसी पोशाक पहनते हैं।
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पूजन के दौरान पहनते हैं सौ गज की पगड़ी
शमी पूजन के दौरान पगोटे (पगड़ी) को पहना जाता है। महाराष्ट्रीयन पद्धति से बनी ये पगड़ी सौ गज की होती है। इसे राजा और सरदार पहनते हैं।
जिस तलवार से शमी के पेड़ को छुआ जाता है, उसका मूठ रत्न जडि़त होता है। साथ ही पूजन करने वाले सदस्य गले में मोतियों का कंठा पहनते हैं। उनकी पोशाक के रूप में अंगा, जाकेट, चूड़ीदार पजामा और जयपुरी जूतियां भी शामिल रहती हैं।
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आठवीं पीढ़ी का नेतृत्व कर रहे ज्योतिरादित्यज्योतिरादित्य सिंधिया शाम को परंपरागत वेश-भूषा में शमी पूजन स्थल मांढरे की माता पर पहुंचेगे। वहां लोगों से मिलने के बाद शमी वृक्ष की पूजा की जाती है। इसके बाद म्यांन से तलवार निकालकर जैसे ही शमी वृक्ष को लगाते है। हजारों की तादाद में मौजूद लोग पत्तियां लूटने के लिए टूट पड़ते हैं। लोग पत्तियों को सोने का प्रतीक के रूप में ले जाते हैं।
महल से जुड़े एसके कदम ने बताया कि दशहरे पर शमी पूजन की परंपरा सदियों पुरानी है। उस वक्त महाराजा सुबह तकरीब 8.30 से 9 बजे अपने लाव-लश्कर व सरदारों के साथ महल से निकलते थे। फिर सवारी गोरखी पहुंचती थी। यहां देव दर्शन बाद यहां शस्त्रों की पूजा होती थी। दोपहर तक यह सिलसिला चलता था। महाराज आते वक्त बग्घी पर सवार रहते थे। लौटते समय हाथी के हौदे पर बैठकर जाते थे। शाम को शमी वृक्ष की पूजा के बाद महाराज गोरखी में देव दर्शन के लिए जाते थे।
चल समारोह जयविलास पैलेस से निकाला जाता था और गोरखी प्रांगण में होते हुए वापस पैलेस पर पहुंचकर संपन्न होता था। चल समारोह सुबह 9.30 बजे शुरू होता था, जिसमें हाथी, घोड़े, बघ्घी, पालकी आदि के साथ सेना चलती थी।
गोरखी देवघर पहुंचने पर कुलदेवता, शस्त्रों के साथ राज चिह्न की पूजा की जाती थी। दौलतराव के बाद के ङ्क्षसधिया राजाओं ने भी इसे कायम रखा और ये समारोह आपातकाल तक निकाला जाता रहा।
शहर में जहां से भी यह निकलता था, लोग घरों से निकलकर इसका स्वागत करते थे। चल समारोह में निकलने वाले हाथियों को हौदे (सिंहासन) से सजाया जाता था, जिस पर राजा बैठते थे और घोड़ों पर सरदार सवार रहते थे।
संग्राम कदम,केशव पांडे के मुताबिक दशहरे पर जयविलास पैलेज के ऊपर दरबार हॉल में दशहरा दरबार लगता था। इसमें जमींदार व सरदार महाराज से मिलने के लिए आते थे। महाराज सरदार परिवारों से मिलने के बाद लोगों से मिलते थे। रिवाज के रूप में उपहार देने की परंपरा भी थी।