दीपेश तिवारी @ ग्वालियर
किसी भी मांगलिक कार्य में भद्रा योग का विशेष ध्यान रखा जाता है। क्योंकि भद्रा काल में मंगल-उत्सव की शुरुआत या समाप्ति अशुभ मानी जाती है। अत: भद्रा काल की अशुभता को मानकर कोई भी आस्थावान व्यक्ति शुभ कार्य नहीं करता। इसलिए जानते हैं कि आखिर क्या होती है भद्रा और क्यों इसे अशुभ माना जाता है? इसी के चलते इस वर्ष होलिका दहन पर बनी असमंजस की स्थिति को ज्योतिषाचार्यों ने एक राय से खारिज कर दिया है। उन्होंने त्योहार तिथि निर्धारण के मुख्य स्रोत निर्णय सिंधु और धर्म सिंधु ग्रंथ का प्रमाण देते हुए 23 मार्च को ही गोधूलि बेला के बाद होलिका दहन की बात कही है।
मान्यता के अनुसार भद्रा भगवान सूर्य देव की पुत्री और शनिदेव की बहन है। भविष्यपुराण के अनुसार इनका रूप अत्यंत भयंकर है इनके उग्र स्वभाव को नियंत्रण करने के लिए ब्रह्मा जी ने इन्हें कालगणना का एक अहम स्थान दिया। ब्रह्मा जी ने ही भद्रा को यह वरदान दिया है कि जो मनुष्य़ उनके समय में मांगलिक कार्य करेगा, उसे भद्रा अवश्य परेशान करेगी। आज भी कई ज्योतिषी भद्रा काल में शुभ कार्य वर्जित मानते हैं।
कैसे बचें भद्रा के दुष्प्रभावों से
भद्रा के दुष्प्रभावों से बचने के लिए मनुष्य को भद्रा नित्य प्रात: उठकर भद्रा के बारह नामों का स्मरण करना चाहिए। विधिपूर्वक भद्रा का पूजन करना चाहिए। भद्रा के बारह नामों का स्मरण और उसकी पूजा करने वाले को भद्रा कभी परेशान नहीं करतीं। ऐसे भक्तों के कार्यों में कभी विघ्न नहीं पड़ता।
भद्रा के बारह नाम: धन्या, दधिमुखी, भद्रा, महामारी, खरानना, कालरात्रि, महारुद्रा, विष्टि, कुलपुत्रिका, भैरवी, महाकाली और असुरक्षयकारी।
भद्रा की उत्पत्ति
ऐसा माना जाता है कि दैत्यों को मारने के लिए भद्रा गर्दभ (गधा) के मुख और लंबे पुंछ और तीन पैर युक्त उत्पन्न हुई। पौराणिक कथा के अनुसार भद्रा भगवान सूर्य नारायण और पत्नी छाया की कन्या व शनि की बहन है।
भद्रा- काले वर्ण, लंबे केश, बड़े दांत वाली तथा भयंकर रूप वाली कन्या है। जन्म लेते ही भद्रा यज्ञों में विघ्न-बाधा पहुंचाने लगी और मंगल-कार्यों में उपद्रव करने लगी तथा सारे जगत को पीड़ा पहुंचाने लगी। उसके दुष्ट स्वभाव को देख कर सूर्य देव को उसके विवाह की चिंता होने लगी और वे सोचने लगे कि इस दुष्टा कुरूपा कन्या का विवाह कैसे होगा? सभी ने सूर्य देव के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया। तब सूर्य देव ने ब्रह्मा जी से उचित परामर्श मांगा।
ब्रह्मा जी ने तब विष्टि से कहा कि -‘भद्रे, बव, बालव, कौलव आदि करणों के अंत में तुम निवास करो तथा जो व्यक्ति तुम्हारे समय में गृह प्रवेश तथा अन्य मांगलिक कार्य करें, तो तुम उन्ही में विघ्न डालो, जो तुम्हारा आदर न करे, उनका कार्य तुम बिगाड़ देना। इस प्रकार उपदेश देकर बृह्मा जी अपने लोक चले गए। तब से भद्रा अपने समय में ही देव-दानव-मानव समस्त प्राणियों को कष्ट देती हुई घूमने लगी। इस प्रकार भद्रा की उत्पत्ति हुई।
शुभ कार्यों में मुहूर्त का विशेष महत्व है। मुहूर्त की गणना के लिए पंचांग का होना अति आवश्यक है। तिथि,वार,नक्षत्र,योग व करण इन पांच अंगों को मिलाकर ही “पंचांग” बनता है। करण पंचांग का पांचवा अंग है। तिथि के आधे भाग को “करण” कहते हैं। तिथि के पहले आधे भाग को प्रथम करन तथा दूसरे आधे भाग को द्वितीय करण कहते हैं। इस प्रकार 1 तिथि में दो करण होते हैं। करण कुल 11 प्रकार के होते हैं इनमें से 7 चर व 4 स्थिर होते हैं।
चर करण- 1.बव 2.बालव 3.कौलव 4.तैतिल 5.गर 6.वणिज 7. विष्टि (भद्रा)।
स्थिर करण- 8.शकुनि 9.चतुष्पद 10.नाग 11.किंस्तुध्न।
इसमें विष्टि करण को ही भद्रा कहते हैं। समस्त करणों में भद्रा का विशेष महत्व है। शुक्ल पक्ष 8,15 तिथि के पूर्वाद्ध में व 4 ,11 तिथि के उत्तरार्द्ध में एवं कृष्ण पक्ष के 3,10 तिथि के उत्तरार्द्ध और 7,14 तिथि के पूर्वाद्ध में भद्रा रहती है अर्थात विष्टि करण रहता है। पूर्वाद्ध की भद्रा दिन में व उत्तरार्द्ध की भद्रा रात्रि में त्याज्य है। यहां विशेष बात यह है कि भद्रा का मुख भाग ही त्याज्य है जबकि पुच्छ भाग सब कार्यों में शुभफलप्रद है। भद्रा के मुख भाग की 5 घटियां अर्थात 2 घंटे त्याज्य है। इसमें किसी भी प्रकार का शुभकार्य करना वर्जित है। पुच्छ भाग की 3 घटियां अर्थात 1 घंटा 12 मिनिट शुभ हैं। सोमवार व शुक्रवार की भद्रा को कल्याणी, शनिवार की भद्रा को वृश्चिकी, गुरूवार की भद्रा को पुण्यवती तथा रविवार, बुधवार, मंगलवार की भद्रा को भद्रिका कहते हैं। इसमें शनिवार की भद्रा विशेष अशुभ होती है।
यूं तो भद्रा का शाब्दिक अर्थ है कल्याण करने वाली लेकिन इस अर्थ के विपरीत भद्रा या विष्टी करण में शुभ कार्य निषेध बताए गए हैं। ज्योतिष विज्ञान के अनुसार अलग-अलग राशियों के अनुसार भद्रा तीनों लोकों में घूमती है। जब यह मृत्युलोक में होती है, तब सभी शुभ कार्यों में बाधक या या उनका नाश करने वाली मानी गई है। जब चंन्द्रमा, कर्क, सिंह, कुंभ व मीन राशि में विचरण करता है और भद्रा विष्टी करण का योग होता है, तब भद्रा पृथ्वीलोक में रहती है। इस समय सभी कार्य शुभ कार्य वर्जित होते है। इसके दोष निवारण के लिए भद्रा व्रत का विधान भी धर्मग्रंथों में बताया गया है।
भद्रा के प्रमुख दोष
1. जब भद्रा मुख में रहती है तो कार्य का नाश होता है।
2. जब भद्रा कंठ में रहती है तो धन का नाश होता है।
3. जब भद्रा हृदय में रहती है तो प्राण का नाश होता है।
4. जब भद्रा पुच्छ में होती है, तो विजय की प्राप्ति एवं कार्य सिद्ध होते हैं।
ज्योतिषों के अनुसार हमारे धर्म ग्रंथो में मान्यता है कि भद्रा काल में होलिका दहन करने से समाज और देश में अराजकता और विद्रोह का माहौल पैदा होता है। धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार भद्रा मुख में किया होली दहन अनिष्ट का स्वागत करने के जैसा है जिसका परिणाम न केवल दहन करने वाले को बल्कि शहर और देशवासियों को भी भुगतना पड़ सकता है।होलिका दहन का मुहूर्त किसी त्यौहार के मुहूर्त से ज्यादा महवपूर्ण और आवश्यक है। यदि किसी अन्य त्यौहार की पूजा उपयुक्त समय पर न की जाये तो मात्र पूजा के लाभ से वञ्चित होना पड़ेगा परन्तु होलिका दहन की पूजा अगर अनुपयुक्त समय पर हो जाये तो यह दुर्भाग्य और पीड़ा देती है, इसलिए शुभ मुहूर्त के अनुसार ही होलिका दहन करे´।
Hindi News / Gwalior / # Holi : जानिये क्यों बदलनी पड़ी होलिका दहन की तारीख, भद्रा काल पर विचार