ग्वालियर। महाविद्याओंकी जननी हाटकाली की महाआरती के बाद शक्ति के पास महाकाली का बिस्तर लगाया जाता है और सुबह बिस्तर यह दर्शाता है कि मानों यहां साक्षात् कालिका विश्राम करके गयी हों, क्योंकि विस्तर में सलवटें पडी रहती हैं।
पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट की सौन्दर्य से परिपूर्ण छटाओं के बीच यहां से लगभग 1 किमी दूरी पर स्थित अत्यन्त ही प्राचीन मां भगवती महाकाली का अद्भुत मंदिर है, जो धार्मिक दृष्टि और पौराणिक दृष्टि काफी महत्वपूर्ण है व आगन्तुकों का मन मोहने में सक्षम है। स्कंदपुराण के मानस खंड में यहां स्थिति देवी का विस्तार से वर्णन मिलता है।
कई रहस्यमयी कथाएं अपने में समेटे है मंदिर
उत्तराखण्ड के लोगोंकी आस्था का केन्द्र महाकाली मंदिर अनेक रहस्यमयी कथाओं को अपने आप में समेटे हुए है। कहा जाता है कि जो भी भक्तजन श्रद्वापूर्वक महाकाली के चरणों में आराधना के श्रद्वापुष्प अर्पित करता है उसके रोग, शोक, दरिद्रता व महान विपदाओं का हरण हो जाता है व उसे अतुल ऐश्वर्य और सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। भक्तों के अनुसार यहां श्रद्वा एवं विनयता से की गई पूजा का विशेष महात्व है। इसलिये वर्ष भर यहां बड़ी संख्या में श्रद्वालु पहुंचते हैं तथा बड़े ही भक्ति भाव से बताते हैं कि किस प्रकार माता महाकालिका ने उनकी मनौती पूर्ण की।
महाकालिका की अलौकिक महिमा के पास आकर ही जगतगुरू शंकराचार्य ने स्वयं को धन्य माना और मां के प्रति अपनी आस्था पुंज बिखेरते हुए उत्तराखण्ड क्षेत्र में अनेक धर्म स्थलों पर श्रद्वा के पुष्प अर्पित किए, जिनके प्रतीत चिन्ह आज भी जागेश्वर के मृत्युंजय महादेव मंदिर, पाताल भुवनेश्वर की रौद्र शक्ति पर व कालिका मंदिर के अलावा अन्य कई पौराणिक मंदिरों एवं गुफाओं में देखे जा सकते हैं।
लोगों की आस्था का प्रतीक
उत्तराखण्ड के प्रसिद्व कवि पं. लोकरत्न गुमानी ने अपने ‘कालिकाष्टक’ में कहा है कि यहां माता विशेष परिस्थितियों में गंभीर व भयानक रूप धरण करती हैं। श्री महाकाली का यह मंदिर उत्तराखण्ड के लोगों की आस्था का प्रतीक है। सुबह मंदिर में जब महाकाली की गूंज, शंख, रूदन और नगाडों की रहस्यमयी आवाजें निकलती हैं, इसके बाद ही यहां पर भक्तजनोंका तांता लगना शुरू होता है। शाम को होने वाली आरती का दृश्य भी अत्यधिक मनमोहक रहता है। सुंदरता से भरपूर इस मंदिर के एक ओर हरा भरा देवदार का आच्छादित घना जंगल है।
विशेष रूप से नवरात्रियों व चैत्र मास की अष्टमी को महाकाली भक्तों का यहां पर विशाल तांता लगा रहता है।
आवाज सुनने पर हो जाती थी मौत
आदि शक्ति महाकाली का यह मंदिर ऐतिहासिक, पौराणिक मान्यताओं सहित अद्भुत चमत्कारिक किवदंतियों व गाथाओं को अपने आप में समेटे हुए है। कहा जाता है कि महिषासुर व चण्डमुण्ड सहित तमाम भयंकर शुम्भ निशुम्भ आदि राक्षसों का वध करने के बाद भी महाकाली का यह रौद्र रूप शांत नहीं हुआ और इस रूप ने महाविकराल धधकती महाभयानक ज्वाला का रूप धारण कर तांडव मचा दिया था। महाकाली ने महाकाल का भयंकर रूप धारण कर देवदार के वृक्ष में चढ़कर जग्गनाथ व भुवनेश्वर नाथ को आवाज लगानी शुरू कर दी। कहते हैं यह आवाज जिस किसी के कान में पड़ती थी वह व्यक्ति सुबह तक यमलोक पहुंच चुका होता था।
छठी शताब्दी में आदि जगत गुरू शंकराचार्य जब अपने भारत भ्रमण के दौरान जागेश्वर आये तो शिव प्रेरणा से उनके मन में यहां आने की इच्छा जागृत हुई, लेकिन जब वे यहां पहुंचे तो नरबलि की बात सुनकर उद्वेलित शंकराचार्य ने इस दैवीय स्थल की सत्ता को स्वीकार करने से इंकार कर दिया और शक्ति के दर्शन करने से भी वे विमुख हो गए। मान्यता के अनुसार लेकिन जब विश्राम के उपरान्त शंकराचार्य ने देवी जगदम्बा की माया से मोहित होकर मंदिर शक्ति परिसर में जाने की इच्छा प्रकट की तो मंदिर शक्ति स्थल पर पहुंचने से ही कुछ दूर पूर्व तक ही स्थित प्राकृतिक रूप से निर्मित गणेश मूर्ति से आगे वे नहीं बढ़ पाये और अचेत होकर इस स्थान पर गिर पड़े व कई दिनों तक यही पड़े रहे उनकी आवाज भी अब बंद हो चुकी थी। अपने अंहभाव व कटु वचन के लिए जगत गुरू शंकराचार्य को अब अत्यधिक पश्चाताप हो रहा था। पश्चाताप प्रकट करने व अन्तर्मन से माता से क्षमा याचना के पश्चात मां भगवती की अलौकिक आभा का उन्हें आभास हुआ।
शंकराचार्य ने किया था कीलनं
चेतन अवस्था में लौटने पर उन्होंने महाकाली से वरदान स्वरूप प्राप्त मंत्र शक्ति व योगसाधना के बल पर शक्ति के दर्शन किए और महाकाली के रौद्रमय रूप को शांत किया तथा मंत्रोचार के द्वारा लोहे के सात बड़े-बड़े भदेलों से शक्ति को कीलनं कर प्रतिष्ठापित किया। अष्टदल व कमल से मढवायी गयी इस शक्ति की ही पूजा अर्चना वर्तमान समय में यहां पर होती है। पौराणिक काल में प्रचलित नरबली के स्थान पर पशु बली की प्रथा आज भी यहां प्रचलित है।
चमत्कारों से भरे इस महामाया भगवती के दरबार में सहस्त्रचण्डी यज्ञ, सहस्रघट पूजा, शतचंडी महायज्ञ, अष्टबलि अठवार का पूजन समय-समय पर आयोजित होता है। यही एक ऐसा दरबार है। जहां अमावस्या हो चाहे पूर्णिमा सब दिन हवन यज्ञ आयोजित होते हैं। मंदिर में अर्धरात्रि में भोग चैत्र और अश्विन मास की महाष्टमी को पिपलेत गांव के पंत उपजाति के ब्राह्मणों द्वारा लगाया जाता है। इस कालिका मंदिर के पुजारी स्थानीय गांव निवासी रावल उपजाति के लोग हैं।
आराध्य स्थल ही है माता का साक्षात यंत्र
सरयू एवं रामगंगा के मध्य गंगावली की सुनहरी घाटी में स्थित भगवती के इस आराध्य स्थल की बनावट त्रिभुजाकार बतायी जाती है और यही त्रिभुज तंत्र शास्त्र के अनुसार माता का साक्षात् यंत्र है। यहां धनहीन धन की इच्छा से, पुत्रहीन पुत्र की इच्छा से, सम्पत्तिहीन सम्पत्ति की इच्छा से सांसारिक मायाजाल से विरक्त लोग मुक्ति की इच्छा से आते हैं व अपनी मनोकामना पूर्ण पाते हैं।
इस मंदिर के निर्माण की कथा भी बड़ी चमत्कारिक रही है। महामाया की प्रेरणा से प्रयाग में होने वाले कुम्भ मेले में से नागा पंथ के महात्मा जंगम बाबा जिन्हें स्वप्न में कई बार इस शक्ति पीठ के दर्शन होते थे। उन्होंने रूद्र दन्त पंत के साथ यहां आकर भगवती के लिए मंदिर निर्माण का कार्य शुरू किया। परन्तु उनके आगे मंदिर निर्माण के लिये पत्थरों की समस्या आन पडी। इसी चिंता में एक रात्रि वे अपने शिष्यों के साथ अपनी धूनी के पास बैठकर विचार कर रहे थे। कोई रास्ता नजर न आने पर थके व निढाल बाबा सोचते-सोचते शिष्यों सहित गहरी निद्रा में सो गये तथा स्वप्न में उन्हें महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती रूपी तीन कन्याओं के दर्शन हुए वे दिव्य मुस्कान के साथ बाबा को स्वप्न में ही अपने साथ उस स्थान पर ले गयी जहां पत्थरों का खजाना था। यह स्थान महाकाली मंदिर के निकट देवदार वृक्षोंके बीच घना वन था। इस स्वप्न को देखते ही बाबा की नींद भंग हुई उन्होंने सभी शिष्यों को जगाया स्वप्न का वर्णन कर रातों-रात चीड की लकड़ी की मशालें तैयार की तथा पूरा शिष्य समुदाय उस स्थान की ओर चल पड़ा, जिसे बाबा ने स्वप्न में देखा था। वहां पहुंचकर रात्रि में ही खुदाई का कार्य आरम्भ किया गया थोडी ही खुदान के बाद यहां संगमरमर से भी बेहतर पत्थरों की खान निकल आयी। कहते हैं कि पूरा मंदिर, भोग भवन, शिवमंदिर, धर्मशाला वं मंदिर परिसर का व प्रवेश द्वारों का निर्माण होने के बाद पत्थर की खान स्वत: ही समाप्त हो गयी। आश्चर्य की बात तो यह है इस खान में नौ फिट से भी लम्बे तराशे हुए पत्थर मिले।
डोला छूने से मिलता है दिव्य वरदान
महाकाली के संदर्भ में एक प्रसिद्व किवदन्ति है कि कालिका का जब रात में डोला चलता है तो इस डोले के साथ कालिका के गण आंण व बांण की सेना भी चलती हैं। कहते है यदि कोई व्यक्ति इस डोले को छू ले तो दिव्य वरदान का भागी बनता है। हाट गांव के चौधिरयों द्वारा महाकालिका को चढायी गयी 22 नाली खेत में देवी का डोला चलने की बात कही जाती है।
महाआरती के बाद शक्ति के पास महाकाली का बिस्तर लगाया जाता है और सुबह बिस्तर यह दर्शाता है कि मानों यहां साक्षात् कालिका विश्राम करके गयी हों क्योंकि विस्तर में सलवटें पड़ी रहती हैं। कुछ बुजुर्ग बताते हैं पशु बलि महाकाली को नहीं दी जाती है। क्योंकि जगतमाता अपने पुत्रों का बलिदान नही लेती हैं। यह बलि कालिका के खास गण करतु को प्रदान की जाती है। मां काली के प्रति उनके तमाम किस्से आज भी क्षेत्र में सुने जाते है भगवती महाकाली का यह दरबार असंख्य चमत्कार व किवदन्तियों से भरा पड़ा है।
सेना की आस्था व विश्वास का केंद्र
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के गंगोलीहाट में स्थित ‘माँ कालिका मंदिर’ जिसे पूरे कुमाऊँ क्षेत्र सहित भारतीय फौज की एक शाखा कुमाऊ रेजीमेंट की आस्था और विश्वास का केंद्र भी कहा जाता है, जो विश्वभर में प्रसिद्ध है। हाट कालिका माता के इस पावन मंदिर को भगवती माता मंदिर, हाट दरबार, महाकाली शक्तिपीठ आदि नामो से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने इस स्थान पर शक्ति पीठ की स्थापना की थी। गंगोलीहाट मुख्य बाजार से 1 किमी. की दूरी पर स्थित यह पावन दरबार चारों ओर से बड़े बड़े हरे-भरे देवदार के पेड़ों से घिरा हुआ है।
मां काली ऐसे बनी कुमाऊ रेजीमेंट की आराध्य देवी
कुमाऊ रेजीमेंट का हाट कालिका से जुड़ाव द्वितीय विश्वयुद्ध (1939 से 1945) के दौरान हुआ। बताया जाता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बंगाल की खाड़ी में भारतीय सेना का जहाज डूबने लगा। तब सैन्य अधिकारियों ने जहाज में सवार सैनिकों से अपने-अपने ईष्ट की आराधना करने को कहा। कुमाऊ के सैनिकों ने जैसे ही हाट काली का जयकारा लगाया तो जहाज किनारे लग गया। इस वाकये के बाद कुमाऊ रेजीमेंट ने मां काली को अपनी आराध्य देवी की मान्यता दे दी। जब भी कुमाऊ रेजीमेंट के जवान युद्ध के लिए रवाना होते हैं तो कालिका माता की जै के नारों के साथ आगे बढ़ते हैं। 1971 की लड़ाई में हमारे देश की सेना ने पाकिस्तान के दांत खट्टे किए थे।
16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना के एक लाख जवानों ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया था। इस दिन को विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। सेना की विजयगाथा में हाट कालिका के नाम से विख्यात गंगोलीहाट के महाकाली मंदिर का भी गहरा नाता रहा है। 1971 की लड़ाई समाप्त होने के बाद कुमाऊ रेजीमेंट ने हाट कालिका के मंदिर में महाकाली की मूर्ति चढ़ाई थी। यह मंदिर में स्थापित पहली मूर्ति थी। बता दें कि हाट कालिका के मंदिर में शक्ति पूजा का विधान है। सेना द्वारा स्थापित यह मूर्ति मंदिर की पहली मूर्ति थी। इसके बाद 1994 में कुमाऊं रेजीमेंट ने ही मंदिर में महाकाली की बड़ी मूर्ति चढ़ाई। इन मूर्तियों को आज भी शक्तिस्थल के पास देखा जा सकता है। कुमाऊं रेजीमेंटल सेंटर रानीखेत के साथ ही रेजीमेंट की बटालियनों में हाट कालिका के मंदिर स्थापित हैं। हाट कालिका की पूजा के लिए सालभर सैन्य अफसरों और जवानों का तांता लगा रहता है। 1971 की भारत-पाक लड़ाई में हिस्सेदार रहे पांखू निवासी रिटायर्ड कैप्टन धन सिंह रावत बताते हैं कि महाकाली का जयकारा लगते ही जवानों में दोगुना जोश भर जाता था।