बाजार में 5000 महिलाएं दुकानदार हैं। मुख्यत: स्थानीय स्तर पर उत्पादित, हस्त निर्मित वस्तुएं जिनमें गृह-गृहस्थी से जुड़े सामान और कपड़े शामिल है यहां बेची जाती हैं। सप्ताह के सातों दिन खुलने वाला यह बाजार सुबह 5 बजे से शाम 7 बजे तक चलता हैं। बाजार में हर तरह का काम भी महिलाएं ही करती हैं। हालांकि बाजार के बाहर ट्रक से पुरुष सामान उतारते हैं। लैंगिग समानता और महिला सशक्तिकरण का ऐसा अनूठा उदाहरण शायद ही कही मिले।
जब पुरुष गए युद्ध पर तो महिलाओं ने संभाला व्यापार…
सन 1533 में स्थानीय शासक के इंफाल में लललूप-काबा श्रम प्रणाली ज़बरदस्ती लागू करने की वजह से बाजार शुरू हुआ था। इसके तहत मैती समुदाय के पुरुष सदस्य घरों से दूर खेती करने या युद्ध में भेज दिए गए, गांवों में पीछे महिलाएं रह गईं। इस स्थिति में महिलाओं ने अपनी गृहस्थी संभालने के लिए गांवों में अपने हाथों से बनाए हुए सामान बेचने लगी। इस प्रकार कुछ मुट्ठीभर महिला दूकानदारों ने मिलकर यह बाजार शुरू किया।
अंग्रेजी हुकूमत ने दबाने की कोशिश की…
1891 में ब्रिटिश सरकार द्धारा स्थानीय स्तर पर उत्पादित धान को दूसरे देशों को निर्यात करने, पानी पर उच्च कर लगाने जैसे कड़े कानून लागू करने से बाजार का तंत्र लगभग चरमरा गया था। इसी प्रकार 1939 में कड़े सुधार लागू करने के विरोध में इस बाजार से जुड़ी महिलाओं ने ‘नुपी लान’ अर्थात महिलाओं का युद्ध शुरू किया। आंदोलन को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने बाजार की जमीन और इमारतें विदेशियों और बाहरी खरीददारों को बेचने का प्रयास किया गया, ईमा कैथेल की माताओं ने हिम्मत नहीं हारी और आखिर में महिलाएं अपने इस बाजार को बचाने में सफल हुई थी।
यह है सालाना कमाई…
यह बाजार एक मात्र महिला संघ (वुमन यूनियन) के द्धारा प्रबंधित होता हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह महिलाएं इस बाजार को संचालित करती हैं। महिला दुकानदार 73 हजार से लेकर 2 लाख रुपये के बीच में सालाना कमा लेती हैं। इस मदर मार्केट का सालाना कारोबार 40-50 करोड़ का होता हैं।