गोरखपुर। विश्वविद्यालयों का वर्तमान स्वरूप यूरो अमरीकी तन्त्र से पूर्णतया प्रभावित है। भारत की दृष्टि से हितकारी यह है कि भारत के विश्वविद्यालय भारतीय हों। अंतरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर भारतवर्ष को बार-बार नीचा दिखाया जाता है कि विश्व के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों में एक भी भारत से नहीं। जबकि वास्तविकता यह है कि हमारा राष्ट्रीय मानस हीनताबोध से ग्रस्त होने के कारण इस तथ्य को नहीं जान पाता कि ऐसे वैश्विक मानकों का निर्माता, मूल्यांकनकर्ता और निर्णायक खुद अमरीका है जो कि आपकी श्रेष्ठता को कभी स्वीकार नहीं करेगा? ये विचार पुनरुथान विद्यापीठ, कर्णावती अहमदाबाद की मानद कुलाधिपति इंदुमती काटदरे ने कही। दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के संवाद भवन में राष्ट्रीय सेवा योजना द्वारा आयोजित “कैसे हों हमारे विश्वविद्यालय” विषयक व्याख्यान को संबोधित करते उन्होंने कहा कि विश्व को श्रेष्ठतम ज्ञानपद्धति देने वाले हमारे देश में यह विडम्बना है कि विश्वविद्यालयों को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाने के फेर में हम अमरीकी मानकों की दासता कर रहे। उन्होंने कहा कि हमारे भारतवर्ष की शिक्षा व्यवस्था का संस्कार रहा है की हमने शिक्षा को कमोडिटी की अपेक्षा जीवन के उज्ज्वल सांस्कारिक पक्ष के रूप में देखा है। उन्होंने बोधकथा के माध्यम से पश्चिम प्रेमी राष्ट्रीय मानस के हीनताबोध पर करारा प्रहार भी किया। विषय की प्रस्ताविकी प्रस्तुत करते हुए प्राचीन इतिहास विभाग के वरिष्ठ आचार्य प्रो. ईश्वर शरण विश्वकर्मा ने कहा कि विश्वविद्यालय के इतिहास में यह चर्चा सर्वाधिक सामयिक तथा प्रासंगिक है। विश्वविद्यालय के परिसरों का वातावरण ही राष्ट्र को विभिन्न क्षेत्रों में अनुकूल मानव संसाधन प्रदान करने के लिये उत्तरदायी है। इसलिए विश्वविद्यालयों के परिसरों का वातावरण भी आज भारतीयता के अनुकूल बनाये जाने की परम् आवश्यकता है। विशिष्ट अतिथि पुनरुत्थान विद्यापीठ, कर्णावती (अहमदाबाद) के मुख्यकर्ता दिलीप केलकर ने कहा कि वर्तमान भारतवर्ष के अधिकाशं विश्वविद्यालय योरोपीय अमरीकी पद्धति के विश्वविद्यालय हैं, स्वतन्त्रता के 70 वर्ष उपरान्त उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विशुद्ध स्वतन्त्र भारतीयता से युक्त विश्वविद्यालय परिसरों की आवश्यकता पर विचार करना ही होगा। हमारी प्राचीन श्रेष्ठ ज्ञानधारा के पुनरुत्थान के लिए व्यक्तिवाद, भौतिकवाद से युक्त विदेशी शिक्षा व्यवस्था का बहिष्कार परम् आवश्यक है। शिक्षा को शिक्षकों पर अधिष्ठित होना चाहिए। उसे शासनतंत्र से मुक्त होना चाहिए। आज हमने शिक्षा को बाजार बनाकर उसे विक्रय की विषयवस्तु बना दिया है। निः शुल्क शिक्षा आज की अनिवार्य आवश्यकता है। हमारी प्राचीन भारतीय ज्ञानधारा, शिक्षा को खण्डित नहीं बल्कि समग्र मानती है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डॉ.राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद के पूर्व कुलपति प्रो.राम अचल सिंह ने कहा कि विश्वविद्यालय परिसरों में वैचारिक स्वतन्त्रता के नाम पर खण्डित मानसिकता का पोषण किसी भी दृष्टि से देश के लिए हितकारी नहीं है। आज विश्वविद्यालयों के अंदर उन्मुक्तता के बढ़ते वातावरण के कारण ही भटकाव से युक्त पीढी निर्मित हो रही है जिससे राष्ट्रीय संस्कार में भारतीयता और सहनशीलता का ह्वास हो रहा है और हम अपने राष्ट्रीय गौरव को विस्मृत कर रहे हैं। राष्ट्रीय सेवा योजना के कार्यक्रम समन्वयक प्रो.शरद कुमार मिश्र ने राष्ट्रीय सेवा योजना द्वारा किये जा रहे सेवा, स्वच्छता, सामाजिक जागरूकता के विभिन्न कार्यक्रमों और प्रकल्पों का लघु वृत्त प्रस्तुत करते हुए कहा कि परमार्थ में सेवाभावना के साथ सामाजिक दायित्व का निर्वाह करना मानव के जीवन का पुनीत कार्य है और विश्वविद्यालयों को शिक्षार्थ आगमन और सेवार्थ प्रस्थान के मन्त्र को आचरण में लाने योग्य है। सञ्चालन समन्वयक प्रो.शरद मिश्रा ने किया तथा आभार ज्ञापन प्रो० सुषमा पाण्डेय के द्वारा किया गया।