राजेंद्रनाथ के अंतिम संस्कार के बाद उनके साथी एक स्मारक बनाना चाहते थे, लेकिन गोरी हुकूमत ने ऐसा करने की इजाजत देने से इंकार कर दिया। ऐसे में उनके रिश्तेदारों और क्रांतिकारी साथियों मनमथनाथ गुप्त, लाल बिहारी टंडन, ईश्वरशरण ने अंतिम संस्कार स्थल पर एक बोतल को बतौर निशानी गाड़ दिया था। बाद में अन्य क्रांतिकारी भी दूसरे मामलों में गिरफ्तार कर लिए गए। इसी दरम्यान किसी ने बोतल को उखाडक़र फेंक दिया। कुछ समय बाद क्रांतिकारी साथी मौके पर पहुंचे तो अंतिम संस्कार वाली जगह को खोजना मुश्किल था। बाद में तमाम प्रयास हुए, लेकिन राजेंद्रनाथ लाहिड़ी के स्मारक के लिए वह स्थान चिह्नित नहीं हो सका, जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया था।
लाहिड़ी को देशप्रेम और निर्भीकता विरासत में मिली थी। मात्र आठ वर्ष की आयु में बंगाल से काशी (बनारस) में अपने मामा के यहां पढऩे के लिए आए राजेंद्रनाथ कुछ समय बाद सचिन्द्रनाथ सान्याल के संपर्क में आए तो राष्ट्रभक्ति की ज्वाला धधकने लगी। जल्द ही आजादी के लिए दीवानगी पनपी तो क्रांतिकारियों की टोली बनाकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिवोल्यूशन आर्मी का अस्तित्व सामने आया। बनारस में इस आर्मी की जिम्मेदारी राजेंद्रनाथ लाहिड़ी के कंधों पर थी। अब वक्त था 1925 का। क्रांतिकारी मिशन के लिए देशभक्तों को धन की किल्लत से जूझना पड़ रहा था।
राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रामप्रसाद बिस्मिल और चंद्रशेखर आजाद की बैठक में क्रांतिकारी मिशन के लिए सरकारी खजाना लूटने की योजना बनी। इस मिशन के लिए राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को सर्वेसर्वा बनाया गया। योजना के मुताबिक, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने 9 अगस्त 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन को चेन खींचकर रोका और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खान, चन्द्रशेखर आज़ाद व 6 अन्य सहयोगियों ने ट्रेन पर धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया। इस कांड से ब्रिटेन की महारानी का सिंहासन हिल गया था। नतीजे में अंग्रेजी हुकूमत ने 40 क्रांतिकारियों पर सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेडऩे, सरकारी खजाना लूटने का मुकदमा चलाया। मुकदमे की जिरह लखनऊ के रिंग थियेटर (वर्तमान में जीपीओ) में हुई थी, जिसमे राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान तथा ठाकुर रोशन सिंह को फाँसी की सजा सुनायी गयी थी।
रिंग थियेटर की अदालत ने 6 अप्रैल 1927 को फैसला सुनाते हुए क्रांतिकारियों के लिए फांसी की तारीख 19 दिसंबर 1927 को तय किया था, लेकिन काकोरी कांड ने राजेंद्रनाथ को जननायक बना दिया था। अंग्रेज हुकूमत को खौफ था कि तयशुदा तारीख पर फांसी देने के स्थान पर हिंदुस्तान की जनता उमड़ सकती है। इसी खौफ के कारण अंग्रेजों ने तय तारीख से दो दिन पहले यानी 17 दिसम्बर 1927 को राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को गोंडा की जिला जेल में फांसी पर चढ़ा दिया। मौत को सामने देखकर भी राजेंद्रनाथ के चेहरे पर शिकन नहीं थी। बताते हैं कि जिस दिन राजेन्द्र लाहिड़ी की फांसी होनी थी, उस सुबह भी वह गीता पाठ और व्यायाम में व्यस्त थे। यह देखकर अंग्रेज अफसर दंग रह गया था। अफसर को चकित देखकर लाहिड़ी ने हंसते हुए कहा था कि मैं मरने नहीं, बल्कि आजाद भारत में पुनर्जन्म लेने के लिए फांसी पर झूलने वाला हूं।
अमर शहीद राजेन्द्र लाहिड़ी के फांसी के बाद आज तक गोंडा जेल में किसी कैदी को फांसी नही हुई है। लाहिड़ी के फांसी घर को मंदिर का रूप दिया गया है तथा काल कोठरी को सुरक्षित रखा गया है। प्रत्येक बरस 17 दिसंबर को आम लोगो के दर्शनार्थ
फांसी घर को खोला जाता है।