कई लोग पूजन के दौरान अपने सामथ्र्य के अनुसार सभी तरह के ऋतुफल व पुष्प भी शामिल करते हैं, लेकिन पिछले कुछ बरसों से परम्परागत पूजन में ये चीजें गायब होती जा रही हैं। महालक्ष्मी पूजन में प्रयुक्त खील-बताशे व शक्कर से बने खिलौने, चिपड़ा और कलम आदि नई पीढ़ी से दूर हो चुके हैं। इसे महानगरीय संस्कृति का प्रभाव कहें या महंगाई का असर कि पारम्परिक पूजन सामग्री अब शगुन के रूप में मिलने से भी मुश्किल होने लगी है।
जरूरतमंद को कई जगहों से ढूंढ कर परम्परागत पूजन सामग्री जुटाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। घंटाघर सहित परकोटे के भीतरी शहर के कई हिस्सों में पंचपर्व पर बिकने वाली पूजन सामग्री में इस बार बोर, मतीरे और सीताफल जैसी चीजें कम ही दिखाई दे रही हैं।
दीपावली पर मारवाड़ के खेतों में पैदा होने वाली विशिष्ट उपज जब पक कर तैयार होती है तो इसके लिए दिवाळी रा दीया दीठा…, काचर बोर मतीरा मीठा… कहावत खासी प्रचलित है। अर्थात दीपोत्सव के दीपक नजर आने के साथ ही विशिष्ट उपज काचरे, बोर व मतीरों में प्रकृति की मिठास प्रवेश करती है। आयुर्वेद चिकित्सा से जुड़े लोगों का कहना है कि शरद पूर्णिमा से कार्तिक अमावस्या के बीच ऋतु परिवर्तन के कारण शारीरिक क्रियाओं में बदलाव आता है। ऐसे में काचर, बोर, मतीरा व धनिया आदि रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है। मारवाड़ में दीपोत्सव के दौरान प्रयुक्त विशिष्ट पूजन सामग्री का कुछ अंश समृद्धि के लिए अन्न भंडार में रखने की परम्परा रही है।