तेजपुंज’ के रूप में देवी चंडिका की महत्ता इसी से ज्ञात
हो जाती है कि ‘श्री दुर्गासप्तशती’ के ‘देव्या कवचम’, ‘अर्गलास्तोत्रम’ का प्रारंभ ही ‘ॐ नमश्चंडिकायै’, (चंडिका देवी को नमस्कार है) से होता है। प्रथम अध्याय में भी मार्कण्डेय उवाच के पहले ‘ॐ नमश्चंडिकायै’ आता है।
देवी चंडिका के दिव्य शरीर में अन्य सभी देवियों की शक्तियां समाहित हैं। इसी कारण चंडिका तेज का पुंज हैं। तेज ही वह आभा है, जिसके द्वारा ‘देवत्व’ दरअसल दानवत्व पर विजय प्राप्त करता है। यजुर्वेद के 19वें अध्याय के 9वें
मंत्र में तो तेज प्राप्ति के लिए ही प्रार्थना करते हुए कहा गया है ‘तेजोअसि तेजोमयि देहि’ अर्थात हे! ईश्वर, तुम तेज स्वरूप हो, मुझे तेज प्रदान करो, ‘उल्लेखनीय है कि देवी चंडिका का तेज दुष्टों का तो दलन करता है, लेकिन भक्तों का कल्याण करता है। दानवों का नाश ही मानवों का विकास है।’ श्री दुर्गा सप्तशती के 11वें अध्याय के 54वें और 55वें श्लोक में देवी चंडिका ने अपने अवतरण के बारे में स्वयं कहा है ‘इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति… तदा तदावतीया हैं करिष्याम्यरिसंक्षयम’ अर्थात ‘जब-जब संसार में दानवी बाधा उपस्थित होगी, तब-तब अवतार लेकर मैं शत्रुओं का संहार करूंगी। ‘ देवी चंडिका द्वारा ‘शुंभ-निशुंभ’ वध की कथा का सार यह है कि तीनों लोकों में जब इन दोनों दैत्यों (शुंभ-निशुंभ) ने अपनी सत्ता के अहंकार में आतंक फैलाकर स्वयं देवी से विवाह जबरन करना चाहा तो देवी ने चंडिका रूप धारण करके पहले निशुंभ का फिर शुंभ का वध कर दिया। वर्तमान अर्थ यह है कि ‘सेर को सवा सेर’ मिलता है। अहंकार का अंत अवश्य होता है।