अर्थात ‘सत्य से मनुष्य सबके ऊपर तपता है।’ महाभारत के उद्योग-पर्व के 35वें अध्याय के
58वें श्लोक में कहा गया है (हिंदी अनुवाद)… ‘जिस सभा में बड़े-बूढ़े नहीं, वह सभा नहीं।
जो धर्म की बात न कहे, वे बूढ़े नहीं।
जिसमें सत्य नहीं, वह धर्म नहीं।
जो कपटपूर्ण हो, वह सत्य नहीं।
यदारूणाख्यस्त्रैलोक्ये महाबाधांकरिष्यति अर्थात ‘जब भयानक दैत्य तीनों लोकों में भारी उपद्रव मचाएगा, तब (53वें श्लोक में आगे कहा) ‘तदाहं भ्रामरं रूपं कृतवा संख्येषटपदम। त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम। अर्थात ‘तब मैं तीनों लोकों का हित करने के लिए छह पैरों वाले असंख्य भ्रमरों का रूप धारण करके उस महादैत्य का वध करूंगी। देवी भ्रामरी की कथा का सारांश यह है कि भयानक दैत्य ने सिद्धियों की प्राप्ति हेतु तपस्या की। उसकी तपस्या इतनी कठोर थी कि उसके शरीर का रंग लाल हो गया। उसको सिद्धि प्राप्त हो गई। उसने सिद्धि का दुरुपयोग करके स्त्रियों का सतीत्व हरण शुरू कर दिया। सिद्धि के कारण दिव्य अस्त्रों से वह मर नहीं सकता था। अत: मां दुर्गा ने देवी भ्रामरी का अवतार लेकर भ्रमरों के डंक से उसे मार दिया। वर्तमान अर्थ यह है कि सिद्ध्रियों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। काव्य पंक्तियां भी हैं कि…
समझ लेना पतन बिंदु पर उसकी साधनायें है ‘