उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछड़ों और दलितों का अच्छा खासा वोट बैंक है। यूपी में ओबीसी समुदाय के अलावा सबसे ज्यादा हिस्सेदारी दलित मतदाताओं की है। अगर आंकड़ों पर नजर डाले तो उत्तर प्रदेश में 42 से 45 फीसदी ओबीसी है। इसके बाद 20 से 21 फीसदी के करीब दलितों की संख्या है। इस 20-21 फीसदी में की सबसे बड़ी संख्या जाटवों की है, जो करीब ५४ प्रतिशत के आसपास है। इसके अलावा यूपी में करीब दलितों की 60 से ज्यादा उपजातियां है। इसमें भी करीब 55 ऐसे जातियां है जिनका की संख्या बल अधिक नहीं है। जो कि करीब कुल दलित मतदाताओं का ८ फीसदी है। आंकड़ों के अनुसार यूपी में जाटव कुल दलितों के हिसाब से 14 फीसदी है। जाटव के अलावा यूपी में दूसरी दलित जो उपजातियां है उनकी संख्या करीब 45 फीसदी के आसपास है। इनमें पासी 16 फीसदी, धोबी, कोरी और बाल्मीकि 15 प्रतिशत और गोंड धानुक, खटिक करीब ५ फीसदी है। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में 42 ऐसे जिले हैं, जहां दलितों की संख्या 20 फीसदी से अधिक है।
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आज भी बहुसंख्यक जाटव मायावती के साथ
यूपी में जाटव मतदाताओं की खासी संख्या को देखते हुए भाजपा ने जाटव समाज से आने वाली बेबीरानी मौर्य को उत्तराखंड के राज्यपाल के पद से इस्तीफा दिलाकर यूपी में होने वाले विधानसभा के चुनाव मैदान में उतारा है, ताकि वह मायावती को कमजोर कर जाटव वोट बैंक को भाजपा के पक्ष में कर सके। वहीं भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर आजाद भी जाटव मतदाताओं में अपनी खासी पकड़ रखते है। अब देखना यह है कि ये दोनों नेता जाटव मतदाताओं को अपने पक्ष में कर बसपा को कितना नुकसान पहुंचा सकते हैं। माना जाता है कि आज भी मायावती की जाटव वोट बैंक पर पकड़ मजबूत है और बहुसंख्यक जाटव मायावती के साथ ही खड़ा है।
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि वर्तमान में मायावती कमजोर जरूर हुई हैं, लेकिन अभी भी उनके कोर वोट बैंक में उनकी पकड़ काफी मजबूत है। राजधानी लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार रंजीव का कहना है कि बेबीरानी मौर्य हो या फिर चंद्रशेखर आजाद अभी ये दोनों मायावती के स्तर के नेता नहीं है, जाटवों पर अपना प्रभाव डाल सके। उनका यह भी मानना है कि जाटवों के अलावा जो अन्य दलित मतदाता जैसे पासी, धोबी, कोरी, बाल्मीकि आदि हैं, वह इस बार के विधानसभा के चुनाव में तीन हिस्सों में बंटेंगे। यह सभी भाजपा, कांग्रेस और सपा के पक्ष में वोट कर सकते हैं।