इस पर राजा ने कहा, “हे देवि! मैं निःसंतान हूं, मैं एक उत्तम पुत्र का वरदान चाहता हूं, हे जगदंबा सावित्री! पुत्र के अतिरिक्त मेरी अन्य कोई कामना नहीं है। आपकी कृपा से पृथ्वी पर उपस्थित समस्त दुर्लभ पदार्थ मेरे महल में उपलब्ध हैं। हे महादेवी! सभी सुख-सौभाग्य मुझे आपकी दया से ही प्राप्त हैं। अतः मुझे पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दें मां।”
राजा की प्रार्थना पर देवी सावित्री ने राजा से कहा कि, “हे राजन! तुम्हारे भाग्य में पुत्र नहीं है, लेकिन भविष्य में एक कन्या होगी। वह स्वयं का और अपने पति दोनों के कुल का उद्धार करने वाली होगी। हे राजशार्दुल! जो मेरा नाम है उस कन्या का भी वही नाम होगा।”
हे मुनिश्रेष्ठ! राजा को संतान प्राप्ति का वर प्रदान करने के बाद देवी अंतर्ध्यान हो गईं। राजा आनंदमग्न हो गया। कुछ दिन बीतने के बाद रानी ने गर्भ धारण कर लिया और पूर्ण समय होने पर प्रसव हुआ। सावित्री का जाप करने के कारण प्रसन्न हो देवी सावित्री ने वरदान दिया था। अतः नवजात कन्या का नाम सावित्री ही रखा गया। उस कन्या के नयन कमल दल की भांति थे और उसके मुखमंडल पर देवी के समान ही तेज उपस्थित था। जिस प्रकार आकाश में चंद्रमा की कलाओं में वृद्धि होती है, उसी प्रकार उस कन्या के तेज और कांति में भी वृद्धि होती थी। वह ब्रह्मा की सावित्री थी, विशाल नयनों वाली देवी लक्ष्मी ही थी, अपनी पुत्री की हेमगर्भ के समान आभा देखकर राजा चिंतित हुए। उसकी पुत्री सावित्री के सामान कोई सुंदर नहीं था, उसके तेज के समक्ष उसे मांगने का कोई साहस ही नहीं करता था। उसके रूप और तेज का दर्शन करने वाले राजा भी स्तंभित हो जाते थे।
एक दिन राजा ने उस कमलनयनी से कहा, “हे पुत्री! तेरे विवाह का समय आ गया है, लेकिन कोई भी तुझसे विवाह करने का प्रस्ताव नहीं ला रहा है। अतः जो भी गुणवान वर मिले और जिसके कुटुम्ब और व्यवहार से तुझे आनंद मिले, उससे तू स्वयं ही विवाह कर ले।” यह कहकर वृद्ध मंत्रियों और नाना प्रकार के वस्त्र-अलंकारों के साथ पुत्री को भेज दिया।
राजा क्षण मात्र के लिए बैठा ही था कि, उसी समय वहां देवर्षि नारद आ गए। राजा ने अर्घ्य अर्पण और चरण प्रक्षालन कर देवर्षि नारद को आसन ग्रहण कराया। पूजन आदि करके राजा ने देवर्षि नारद से कहा कि, “आपके दर्शन करके मैं पवित्र हो गया हूं, आपने मुझे पावन कर दिया है।”
राजा देवर्षि नारद से बातचीत कर ही रहे थे कि, उसी समय आश्रम से कमलनयनी सावित्री उन्हीं वृद्ध मंत्रियों सहित वहां लौट आईं। सर्वप्रथम तो सावित्री ने अपने पूज्य पिता जी की वंदना की, फिर देवर्षि को प्रणाम किया।
सावित्री के दर्शन कर देवर्षि नारद बोले, “हे राजन्! देवगर्भ के समान तेज वाली यह सुंदरी विवाह योग्य है, अतः तुम इसके विवाह के लिए किसी योग्य वर को क्यों नहीं ढूंढ़ रहे हो?” राजा ने उत्तर दिया, “हे मुनिश्रेष्ठ! मैंने सावित्री को इसी कार्य के लिए भेजा था। अभी यह लौट आी है। ऐसा लगता है इसने अपने पति का चयन कर लिया है, कृपया आप ही पूछ लीजिए।” देवर्षि नारद के प्रश्न करने पर सावित्री ने उत्तर दिया कि, “हे मुनिश्रेष्ठ आश्रम में द्युमत्सेन का पुत्र सत्यवान् है। मैंने उसका ही अपने पति के रूप में चयन किया है।”
सावित्री के मुख से यह सुनते ही देवर्षि नारद ने कहा कि, “हे राजन्! आपकी पुत्री ने यह अत्यन्त अनुचित कार्य किया है। इसने सत्यवान् के विषय में बिना कुछ जाने ही उसका वरण कर लिया। यद्यपि वह अत्यन्त सद्गुणी है, लोकप्रिय है और उसके माता-पिता भी सत्यवादी हैं। वह स्वयं भी सदैव सत्य ही बोलता है, इसीलिये सत्यवान के नाम से विख्यात है। उसे अश्व प्रिय हैं और वह मिट्टी के घोड़ों के साथ ही खेलता है। वह चित्र भी अश्व के ही काढ़ता हैं, इस कारण उसका एक नाम चित्राश्व भी है। वह सौन्दर्य और सद्गुणों से परिपूर्ण है और समस्त शास्त्रों को जानने वाला है। उसके समान कोई मनुष्य नही है। जिस प्रकार रत्नों से महासागर परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार सत्यवान भी समस्त गुणों से संपन्न है। लेकिन उसका एक ही दोष उसके समस्त गुणों को कम कर देता है वह है, अब उसकी आयु एक वर्ष ही बची है, इसके बाद वह देह त्याग कर देगा।”
देवर्षि नारद की बात सुनकर अश्वपति बोले , “हे पुत्री सावित्री! तेरा कल्याण हो, तू किसी अन्य वर से विवाह कर ले, हे शुभलोचने! यही तेरे विवाह का अनुकूल समय है।” इस पर सावित्री ने कहा कि “हे तात (पिताजी)! मैंने मन से जिसका वरण किया है, वही मेरा पति होगा। अब मैं किसी अन्य पुरुष का वरण नहीं कर सकती। राजा की आज्ञा, पंडित का वचन और कन्यादान एक ही बार होता है। अब सगुण, निर्गुण, मूर्ख, पण्डित, दीर्घायु , अल्पायु आदि कुछ भी हो मेरा पति सत्यवान ही होगा। यह सुनकर देवर्षि नारद ने कहा, “हे राजन्! सावित्री ने सत्यवान से विवाह करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है। अतः आप शीघ्र ही इसका विवाह करके पति के साथ भेज दें।” यह कहकर देवर्षि नारद वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गए।
भगवान शिव बोले कि, सावित्री के अचल, स्थिर बुद्धि और निश्चल हृदय को देखकर राजा, सावित्री और नाना प्रकार की धन-संपदा के साथ वन में निवास कर रहे वृद्ध और नेत्रहीन द्युमत्सेन के पास पहुंचे। इस समय द्युमत्सेन एक वृक्ष के नीचे सुस्ता रहा था। राजा के साथ वृद्ध मंत्री और कुछ अनुयायी भी थे। सावित्री और अश्वपति ने द्युमत्सेन के चरण स्पर्श किए और अपना परिचय देते हुए पास में ही खड़े हो गए। द्युमत्सेन ने राजा से आने का कारण पूछा और वन के कंद-मूल फल आदि से स्वागत-सत्कार किया। इसके बाद द्युमत्सेन ने राजा अश्वपति से कुशल-क्षेम पूछा, इस पर अश्वपति ने कहा कि, “आपके दर्शन मात्र से मेरा मंगल हो गया है। मेरी सावित्री नाम की पुत्री आपके पुत्र से प्रेम करती है। इसने स्वयं ही आपके पुत्र को अपने पति के रूप में चुन लिया है। आपका पुत्र इसे स्वीकार कर ले और मेरा आपका संबंध स्थापित हो यही कामना है।”
द्युमत्सेन ने कहा कि, “हे राजन्! मैं वृद्ध और दृष्टिहीन हूं। मेरा भोजन कंदमूल फल आदि है। राज्य छिन गया है, मेरा पुत्र भी वन्य संसाधनों पर ही निर्वाह करता है। आपकी पुत्री वन्यजीवन के कष्टों को कैसे सहन करेगी? भला इसे इन दुखों का अर्थ कहां मालूम होगा। यही कारण है कि मैं इस विवाह प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकता।”
द्युमत्सेन के मन की दुविधा को समझते हुए राजा अश्वपति ने कहा, “मेरी पुत्री ने इन सभी तथ्यों को ज्ञात कर ही सत्यवान का वरण किया है। हे मान देने वाले! निःसन्देह आपके पुत्र का सानिध्य मेरी पुत्री को स्वर्ग के समान प्रतीत होगा।” अश्वपति के वचनों को सुन उस द्युमत्सेन राजर्षि ने सावित्री और सत्यवान के विवाह के लिए हामी भर दी। विवाह के बाद अश्वपति ने अनेक प्रकार से राजर्षि द्युमत्सेन का अभिवादन किया और अपनी राजधानी लौट आए।
सत्यवान को पति के रूप में प्राप्त कर सावित्री उसी प्रकार आनंद विभोर हो गई जिस प्रकार इंद्र को प्राप्त कर शची आनन्दित होती हैं। सत्यवान भी सावित्री को पत्नी रूप में प्राप्त कर अत्यधिक हर्षित और आनन्दित हो रहा था। लेकिन सावित्री के मन में अभी भी देवर्षि नारद की बातें गूंजती रहती थीं। वह दिनों की गिनती करती रहती थी और सत्यवान का अंत समय निकट आने की चिंता में गृहस्थ जीवन का आनंद नहीं ले पा रही थी। इसीलिए उसने वट सावित्री व्रत करने का संकल्प किया और दिन-रात व्रत में ही लीन हो गईं। तीन रात्रि पूर्ण कर पितृ देवताओं का तर्पण किया और सास-श्वसुर की चरण वंदना कर पूजन किया। इस बीच समय नजदीक आने पर सत्यवान एक विशाल कठोर कुल्हाड़ी लेकर वन की ओर जाने लगा। किसी अनहोनी की आशंका से सावित्री ने सत्यवान से आग्रह किया कि, “कृपया आप इस समय वन न जाएं, यदि जाने के इच्छुक ही हैं तो मुझे भी साथ आने दें। इस आश्रम में निवास करते हुए एक वर्ष बीत गया है, मैंने आज तक वन नहीं देखा, मेरी भी वन भ्रमण की कामना है, हे स्वामी! मुझे अपने साथ लेकर चलें।”
सत्यवान ने कहा, “हे प्रेयसी! मैं स्वतंत्र नहीं हूं! मेरे माता-पिता से आज्ञा ले लो और यदि वे कहते हैं, तो मेरे साथ चलो।” सत्यवान की बात सुनकर सवित्री सास-श्वसुर के पास जाकर बोली, “मैं वन भ्रमण करना चाहती हूँ, कृपया मुझे आज्ञा दें, मेरा ह्रदय अपने पति के साथ वन भ्रमण के लिए अधीर हो रहा है।”
यह सुनकर द्युमत्सेन ने कहा, “हे कल्याणी! आपने व्रत किया है, अतः उसका पारण कर लीजिए, इसके बाद वन चली जाना।” सावित्री बोली।, “मैंने यह अनुष्ठान पूरा कर लिया है और चंद्रोदय के बाद भोजन ग्रहण करूंगी। इस समय मेरा मन पति के साथ वन भ्रमण के लिए लालायित है। हे राजन्! मुझे मेरे प्रिय पति के सानिध्य में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा।”
यह सुनकर द्युमत्सेन ने कहा, “जैसा आपको उचित लगे प्रसन्नतापूर्वक वैसा ही करें।” सावित्री ने सास-श्वसुर की चरण-वन्दना की और सत्यवान के साथ वन को प्रस्थान किया। पति की मृत्यु का समय निकट था, अतः सावित्री लगातार उसे ही देख रही थी। सम्पूर्ण वन विविध प्रकार के सुंदर पुष्पों से सुसज्जित था। सुंदर हिरण वायुवेग से यहां-वहां दौड़ रहे थे। सावित्री इस दृश्य को देखते हुए वन में चली जा रही थी, लेकिन मन में सत्यवान की मृत्यु के विषय में विचार कर डरी भी थी। सत्यवान कठिन परिश्रम करते हुए शीघ्रता से लकड़ी और फल जुटाने लगा। परम पतिव्रता, महासती सावित्री वट वृक्ष के मूल में बैठी हुई थी, उसी समय लकड़ी का भार उठाते हुए सत्यवान के सिर में दर्द उठा और उसका शरीर कांपने लगा। वह वट वृक्ष के पास आकर सावित्री से बोला, “मेरा शरीर कांप रहा है, मेरे सिर में जोर का दर्द उठा है, ऐसा लग रहा है जैसे मेरे सिर में कांटे चुभ रहे हैं। हे सुव्रते! हे प्राणप्रिय! मैं तेरी गोद में विश्राम करना चाहता हूं।”
सावित्री सत्यवान की मृत्यु के समय को जानती थी। उसे पता चल गया था कि, काल का आगमन हो गया है, अतः वह उसी स्थान पर बैठ गई और सत्यवान भी उसकी गोद में मस्तक रखकर सोने लगा। उसी क्षण वहां काले और भूरे रंग का व्यक्ति प्रकट हुआ, उसकी देह से तेज निकल रहा था। उसने सावित्री से बोला- छोड़ दे इसे! सावित्री ने प्रश्न किया कि, संसार को भयभीत करने वाले आप कौन हैं? मुझे कोई भी पुरुष भयभीत नहीं कर सकता।
यह सुनकर लोकों में भयंकर यम ने कहा, “हे वरारोहे! तेरे पति की आयु समाप्त हो गई है। इसे अपने पाश में बांधकर कर ले जाने आया हूं।” यमराज की बात सुनकर सावित्री बोली, “हे प्रभु! मैंने तो यह सुना कि आपके दूत अर्थात यमदूत प्राणी को लेन आते हैं। लेकिन आपके स्वयं उपस्थित होने का क्या कारण है? “यम ने कहा कि, “सत्यवान अत्यन्त धर्मात्मा और सद्गुणी है। अतः वह मेरे दूतों द्वारा ले जाने योग्य नहीं है। इसीलिए मैं स्वयं ही आया हूं।” इतना कहते हुए यमदेव ने सत्यवान के शरीर में पाशों के बन्धन में बँधे अगुंष्ट मात्र के प्राण पुरुष को बलपूर्व खींच लिया। इसके बाद सत्यवान का शरीर निःश्वास, निष्प्राण, तेज रहित, चेष्टा रहित हो गया और यम उसे बांधकर दक्षिण दिशा की ओर जाने लगे।
अपने पति की मृत्यु से व्याकुल सावित्री भी यम के पीछे-पीछे चलने लगी। सावित्री अपने व्रत-नियम आदि से सिद्ध हो चुकी थी और परम पतिव्रता थी, अतः यम के पीछे जाना उसके लिए सुलभ था। यम ने सावित्री को अपने पीछे आता देखा तो कहा, “जा इसका अन्त्योष्टि संस्कार कर, पति के प्रति जो तेरा कर्तव्य था, वह तूने पूरा किया, जहां तक जाना संभव था वहां तक गई।” सावित्री ने कहा, “जहां मेरे पति को ले जाया जाए अथवा वह स्वयं जाए वहीं मैं भी रहूं, यह सनातन धर्म है। पति प्रेम, गुरुभक्ति, जप-तप और आपकी कृपा के फलस्वरूप मैं कहीं नहीं रूक सकती। तत्वदर्शियों ने सात आधारों पर मित्रता बतलायी है, मैं उसी मैत्री की दृष्टि से कहती हूं ध्यानपूर्वक सुनो!
लोलुप वनवास करके भी धर्म का आचरण नहीं कर सकते, न ब्रह्मचारी, न सन्यासी हो सकते हैं, बुद्धिमान ज्ञानीजन धर्म में ही सुख मानते हैं, इसीलिए संत धर्म को ही प्रधान मानते हैं। सज्जनों द्वारा स्वीकार्य एक ही धर्म के माध्यम से हम दोनों ने एक ही मार्ग प्राप्त किया है। इसीलिए मैं गुरुकुल वास और संन्यास कि इच्छुक नहीं हूं, इस गार्हस्थ्य धर्म को ही सज्जनों ने सर्वोच्च कहा है।”
यम बोले, हे अनिन्दिते! “तेरे द्वारा कहा प्रत्येक शब्द व्यंग से परिपूर्ण हैं। मैं परम प्रसन्न हूं, सत्यवान के जीवनदान के अतिरिक्त तुझे जो भी वरदान चाहिए मांग ले, मैं तेरी मनोकामना अवश्य पूर्ण करूंगा।”
सावित्री बोली, “मेरे श्वसुर राज्य विहीन होकर वनवास कर रहे हैं, वह दृष्टि हीन हो गए हैं, उन्हें नेत्र प्राप्त हो जाए और वह सूर्य के सामान तेजस्वी, बलशाली हों।” यम ने कहा, “जैसे तूने कहा है वैसा ही होगा। मैं आपके मार्ग का परिश्रम देख रहा हूं, आप अपने आश्रम के लिए प्रस्थान करें।” सावित्री बोली, “आप जहां मेरे पति को ले कर चलेंगे, मैं भी वहीं चलूंगी, इसमें मुझे कोई कष्ट नहीं होगा।”
सज्जनों के सानिध्य की कामना सभी करते हैं, सज्जनों का संग कभी निष्फल नहीं होता है, अतः सदैव सज्जनों की संगति करनी चाहिए। यम ने कहा, “आपका कथन मेरे मनोनुकूल, बुद्धि-बल में वृद्धि करने वाला और अत्यन्त हितकारी है। हे भामिनी! सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त कोई अन्य दूसरा वर मांग लें।”
इस पर सावित्री बोली, “मेरे श्वशुर का छीना हुआ राज्य पुनः उन्हें प्राप्त हो जाए और वह धर्म कर्म कभी न त्यागें।” यम ने कहा, “कुछ ही समय में आपके श्वशुर को उसका राज्य प्राप्त हो जाएगा और वह कभी धर्म से विमुख नहीं होगा। तेरी मनोकामना पूर्ण हुई, अब घर को लौट जा, व्यर्थ कष्ट क्यों करती है?”
सावित्री बोली, मुझे ज्ञात है कि, “आपने प्रजा को नियम के बंभन में बांधा हुआ है, इसीलिए यम के रूप में विख्यात हैं। मन, वाणी, अन्तःकरण से किसी से शत्रुता न करना, दान करना, आग्रह का परित्याग करना यह सज्जनों का सनातन धर्म है। इसी प्रकार यह लोक है, यहां शक्तिशाली सज्जन मनुष्य शत्रुओं पर भी दया करते हैं।”
यम बोले, “आपके वचन मुझे ठीक उसी प्रकार प्रतीत होते हैं, जैसे प्यासे को जल। सत्यवान के प्राणों के अतिरिक्त जो उचित लगे मांग लें।” सावित्री ने कहा, “मेरा तीसरा वरदान यह है कि, मेरे पुत्रहीन पिता को सौ कुलवर्धक औरस पुत्र प्राप्त हों।” यम ने कहा, “तेरे पिता को शुभ लक्षणों से युक्त सौ पुत्र प्राप्त होंगे। हे भामिनी! तुम्हारी समस्त कामनायें पूर्ण हुईं, अब लौट जाओ, बहुत दूर आ चुकी हो।” सावित्री बोली, “पति के समक्ष मेरे लिए कुछ दूर नहीं है, मेरा मन पति समीप बहुत दूर तक भी पहुंच जाता है।
मुझे कुछ स्मरण हो आया, उसे भी सुनिये, आप आदित्य के प्रति पुत्र हैं, इसीलिए ज्ञानीजन आपको वैवस्वत कहते हैं, आप प्रजा से समान व्यवहार करते हैं, इसीलिए आपको धर्मराज कहते हैं। संसार में व्यक्तियों को स्वयं से अधिक सज्जनों पर विश्वास होता है, इसी कारण सज्जन सभी को प्रिय होते हैं।”
यम ने कहा, “जो जैसा वर्णन किया है, ऐसा मैंने पूर्व में कभी नहीं सुना। मैं तेरे वचनों से अति प्रसन्न हूं। सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त जो कामना हो मांग ले।” सावित्री बोली, “मुझे सत्यवान से ही औरस पुत्र हों, हम दोनों का बलशाली, वीर्यशाली सौ पुत्रों का कुल हो, यही मेरा चौथा वरदान है।” यम ने कहा, “तथास्तु! तेरा और सत्यवान का सौ पुत्रों से युक्त परिवार होगा। अब वापस लौट जा, बहुत दूर आ चुकी है।”
सावित्री ने कहा, “सज्जनों की वृद्धि सदा धर्म में ही रहती है, न तो सत्पुरुष उसमें दुखी होते हैं और न ही विचलित होते हैं, सज्जनों का सज्जनों से संग कभी व्यर्थ नहीं होता, उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं होता। संत ही सत्य से सूर्य को संचालित कर रहे हैं, तप से पृथ्वी को धारण कर रहे हैं। हे राजन! सत्य ही भूत-भविष्य की गति है। सज्जनों के मध्य सज्जन दुखी नहीं होते। सज्जनों का यही व्यवहार है, सज्जन किसी का कार्य करते हुए किसी फल की अपेक्षा नहीं रखते। सज्जनों की कृपा कभी व्यर्थ नहीं जाती, न उनके संग में धन औ मान का नाश होता है, इसीलिए सज्जन रक्षक होते हैं।”
यम ने कहा, “तेरे द्वारा कहे मनोनुकूल, धर्मानुकूल और अर्थयुक्त वचनों को सुनकर तेरे प्रति मेरी भक्ति बढ़ती ही जाती है। अतः हे सच्चरित्रा! और वर मांग।”
सावित्री बोली, “मैंने आपसे औरस पुत्र अर्थात दाम्पत्य सुख के साथ पुत्र का वरदान मांगा है और न ही मैंने किसी अन्य रीति से पुत्र प्राप्ति की कामना की है। अतः आप मुझे यह वरदान दें कि मेरा पति जीवित हो जाए, क्योंकि इसके बिना मैं भी मृत समान हूं। पति के आभाव में मुझे स्वर्ग, श्री, और जीवन आदि सुख कुछ नहीं चाहिए। आपने मुझे सौ औरस पुत्रों का वरदान दिया और आप स्वयं ही मेरे पति के प्राणों का हरण कर रहे हैं, इस कारण आपका वरदान कैसे फलीभूत होगा? मैं वरदान मांगती हूं कि, सत्यवान के प्राण पुनः लौट आएं। ऐसा करने से आपके ही वचन सत्य होंगें।”
यम ने तथास्तु कहकर सत्यवान के प्राणों को पाश से मुक्त कर दिया और प्रसन्नतापूर्वक बोला, “हे कुलनंदिनी! मैंने आपके पति को मुक्त कर दिया है। यह निरोग और सिद्धार्थ होगा, आप इसे ले जाएं, यह आपके साथ चार सौ वर्ष की आयु प्राप्त करेगा।” सावित्री वट वृक्ष के समीप आ गईं और सत्यवान के सिर को गोदी में रखकर बैठ गईं।
भगवान शिव ने कहा, हे ब्रह्मन्! सत्यवान की चेतना लौट आई और वह बोला, “हे वरारोहे! हे प्राणप्रिय! अभी मैने एक स्वप्न देखा” और सारा वृत्तांत सावित्री को सुनाया। सावित्री ने भी यम के साथ हुई अपनी बातचीत को सत्यवान को बताया।
द्युमत्सेन अपने पुत्र के आने की प्रतीक्षा कर रहा था, लेकिन सायंकाल का समय होते ही वह व्याकुल हो उठा और यहां से वहां चारों दिशाओं में भागने लगा। द्युमत्सेन पुत्र की खोज में एक आश्रम से दूसरे आश्रम जाता और सभी से पूछता कि हम दोनों नेत्रहीनों की लकड़ी, मेरा प्रिय पुत्र चित्राश्व कहां गया? और हे पुत्र, हे पुत्र कहकर दुखी होता। उसी समय राजा के नेत्र खुल गए और उसकी दृष्टि लौट आई। इस चमत्कार को देखकर आश्रम के ब्राह्मण बोले, “हे राजन्! आपके तप के फलस्वरूप आपको आपकी दृष्टि लौट आई है, अतः यह नेत्र प्राप्ति संकेत है कि आपका पुत्र भी शीघ्र ही मिल जाएगा।”
भगवान शिव बोले, ब्राह्मण चर्चा कर ही रहे थे कि, उसी समय सावित्री और सत्यवान लौट आए, सबको प्रणाम किया। वहां उपस्थित ब्राह्मणों ने पूछा, “हे शुभानने सावित्री! क्या तुम्हें अपने वृद्ध श्वशुर के नेत्रों की फिर प्राप्ति का कारण ज्ञात है?”
सावित्री बोली कि, “हे पूजनीय द्विजगणों! मुझे उनकी दृष्टि प्राप्ति का वास्तविक कारण तो ज्ञात नहीं है, लेकिन मेरे पति चिरनिद्रा में लीन हो गए थे, इस कारण विलम्ब हो गया।” सत्यवान बोला, “हे मुनिगणों! यह सब इस सावित्री के व्रत के प्रभाव से ही हुआ है, मुझे कोई अन्य कारण नहीं प्रतीत होता, अतः यह सावित्री के तप का ही शुभ परिणाम है। मैने स्वयं सावित्री के व्रत का यह माहात्म्य देखा है।”
शिवजी बोले, सत्यवान यह कह ही रहा होता है कि, उसी क्षण उसकी राजधानी के प्रधान पुरुषों ने आकर यह सूचना दी कि, “जिस दुष्ट मंत्री ने आपका राज्य बलपूर्वक छीन लिया था, उसका वध भी उसके मंत्री ने ही कर दिया। इसीलिए हम आपके समक्ष उपस्थित हुए हैं, हे राज-शार्दुल! अपने राज्य का पालन करने चलें। हे राजन! आप मंत्री और पुरोहितों द्वारा अपना राज्याभिषेक कराएं।” राजा उनका आग्रह स्वीकार कर उन प्रधान पुरुषों सहित अपने नगर पहुंचा अपने कुल क्रमागत राज्य को प्राप्त कर अति आनंदित हुआ। सावित्री और सत्यवान भी अत्यन्त प्रसन्न हुए। इसी व्रत के माहात्म्य से सावित्री ने सौ वीर पुत्रों को जन्म दिया। यमराज के वरदान के अनुसार ही सावित्री के पिता के भी परम बलवान सौ पुत्र हुए।
हे ब्राह्मण! हमने इस वट सावित्री व्रत का उत्तम महत्त्व सुना दिया है। इस व्रत के प्रभाव से आयु क्षीण होने पर भी पति जीवित हो उठता है। समस्त स्त्रियों को इस सौभाग्यदायक व्रत को करना चाहिए।”