जिनकी भक्ति बड़ी पावन और शुद्ध “देसी” रही है जो तंत्र-मंत्र के रूप में नहीं थे जो वस्त्र वेशभूषा में नहीं थे परंतु मन ह्रदय कर्म और वचन से शुद्ध साधु थे। जिन्हें पूजा भाव भी नही आता था। ऐसे ही एक साधु थे “केवट” जिन्होंने तीनों लोकों के पालनहार की “नैया” पार लगाई थी। जब प्रभु राम ने केवट से नाव लाने के लिए कहा क्योंकि उन्हें गंगा पार जाना था केवट ने बड़े तल्ख शब्दों में मना कर दिया और यह सुनकर भैया लखन की छाती फूल गयी।
यहां गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
मांगी नाव न केवट आना।
कहइ तुम्हार मरम मैं जाना।।
चरण कमल रज कहुं सब कहईं।
मानुष करनि मूरि कछु अहईं।।
लंबा संवाद हुआ केवट और राम के मध्य फिर! केवट ने कहा अगर मेरी नाव नारी बन गई तो प्रभु हमारी तो रोजी रोटी के लाले पड़ जाएंगे हम खाएंगे कहां और एक और नारी को अपने घर में हम कहां स्थान देंगे आपके चरणों की “रज” की करामात हम जानते हैं।
मुसकुराते हुए अयोध्यापति बोले!
कृपासिंधु बोले मुसुकाई
सोई करु जेहिं तव नाव न जाई।
महाराज जनक के बाद केवट दूसरे ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें प्रभु श्रीराम के चरण को पकड़ने का सौभाग्य मिला था।
अति आनंद उमगि अनुरागा।
चरन सरोज पखारन लागा।
और हमारे सनातन धर्म में केवट का दर्शन बड़ा पुण्य माना गया है। भरद्वाज याज्ञवल्क्य जैसे मुनियों ने हजारों करोड़ों वर्षों तक तपस्या की तब जाकर के प्रभु श्री राम के दर्शन हुए! और केवट की एक सहज भाव ने प्रभु श्रीराम के चरण रस का पान किया जानते हैं क्यों!
क्योंकि केवट सरल था सहज था वह सब जानता था।
फिर यहीं से प्रभु महर्षि भारद्वाज के आश्रम गए।
सहज बनिए सहज “ज्ञान” का आडंबर मत करिए।
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