ऐसे में आज हम आपको ऐसे ही एक और मंदिर की कहानी बता रहे हैं। जिसे पांडवों की कुलदेवी का मंदिर माना जाता है। आपको जानकार हैरानी होगी, लेकिन यह सच है कि यहां मंदिर में स्थापित मां की प्रतिमा यूं तो वर्षभर सामान्य रहती है।
लेकिन नवरात्रि के दिनों में मां की मूर्ति का आकार दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है। वहीं नवमी के दिन मां की प्रतिमा गर्भगृह से बाहर ही आ जाती है।
तो आइए जानते हैं इस मंदिर के बारे में, जहां देवी मां की प्रतिमा का आकार नवरात्रिभर बढ़ता रहता है और साथ ही ये भी जानते हैं कि कैसे विराजी थीं यहां देवी मां ? …
दरअसल आज हम जिस मंदिर की बात कर रहे है। वह मध्यप्रदेश के मुरैना के निकट कैलारस-पहाड़गढ़ मार्ग पर जंगल क्षेत्र के पहाड़ों पर स्थित है। जो जंगलों में देवी भवानी ‘मां बहरारे वाली माता’ के नाम से विराजमान हैं।
इस मंदिर में खास बात ये है कि नवरात्रि के 9 दिनों में मां बहरारे की मूर्ति का आकार प्रतिदिन बढ़ता रहता है। यही नहीं नवमी के दिन तो मां की मूर्ति गर्भ-गुफा से बाहर आ जाती है।
मंदिर के संबंध में जो कथा मिलती है, उसके अनुसार पाडंवों ने यहां अज्ञातवास के दौरान अपनी कुलदेवी की पूजा की थी और पूजा के दौरान ही कुलदेवी एक बड़ी शिला में समा गईं थीं।
कहा जाता है कि मंदिर में स्थापित शिला को कई बार स्थानीय लोगों ने मूर्ति रूप देने का प्रयास किया लेकिन सभी कोशिशें बेकार साबित हुईं। वही यह भी कथा मिलती है कि देवी मां को यहां पांडव ही लेकर आए थे और उन्होंने ही माता की प्रतिष्ठा कराई थी। हालांकि उस समय यहां घनघोर जंगल था।
इसके बाद संवत् 1152 में स्थानीय निवासी विहारी ने बहरारा बसाया और फिर संवत् 1621 में खांडेराव भगत ने बहरारा माता के मंदिर का निर्माण कराया था। तब से मंदिर में पूजा-अर्चना क्रम चला आ रहा है।
यहां देश के कोने-कोने से श्रद्धालु आकर मां के मनोरम रूप का दर्शन करते हैं। मंदिर में वासंतिक और शारदीय नवरात्रि के विशेष मौकों पर मेले का आयोजन किया जाता है।
कथा के अनुसार जब पांडवों ने विधि-विधान से कुलदेवी की पूजा-अर्चना की तो वह अत्यंत प्रसन्न हुईं। और देवी मां ने अर्जुन से कहा कि हे अर्जुन, मैं तुम्हारी भक्ति और पूजा से खुश हूं। बताओं तुम्हें क्या वरदान चाहिए।
तब अर्जुन ने कहा हे मां, मुझे आपसे वरदान में ज्यादा कुछ नहीं चाहिए, न ही मैंने आपकी पूजा किसी वरदान के लिए की है। मेरी तो बस ये ही इच्छा है कि समय और नीति के अनुसार हम पांचों भाईयों को 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास का समय व्यतीत करना है, इसलिए मैं चाहता हूं कि आप प्रसन्नता पूर्वक मेरे साथ चलें।
माता ने प्रसन्न होकर अर्जुन को दिया था वरदान
इस पर कुलदेवी ने कहा कि हे अर्जुन मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत खुश हूं। तुम मेरे कृपापात्र बन गए हो, मैं चाहते हुए भी तुम्हें मना नहीं कर सकती, अर्जुन मैं तुम्हारे साथ चलने के लिए तैयार हूं पर मेरी एक शर्त है कि तुम आगे चलोगे और मैं पीछे। जहां भी तुमने मुझे पीछे मुड़कर देखा मैं वहीं पर स्थाई रूप से विराजित हो जाऊंगी। अर्जुन ने अपनी कुल देवी की बात मान ली और वह आगे-आगे चल दिए।
कहते हैं कि काफी दूरी तक चलने के बाद अर्जुन जंगलों के रास्ते से गुजरते हुए विराट नगरी पहुंचे, तो उनके मन में पीछे आ रहीं कुलदेवी मां को देखने की इच्छा हुई। वह यह बात पूरी तरह से भूल गए कि देवी मां ने पीछे मुड़कर देखने से मना किया है।
उन्हें लगा कि देख लूं कुलदेवी कहीं पीछे तो नहीं रह गई। जैसे ही अर्जुन ने पीछे मुड़कर देखा वैसे ही हस्तिनापुर से अर्जुन के पीछे-पीछे चल रही कुलदेवी एक शिला में प्रवेश कर गईं। तब अर्जुन को कुलदेवी को दिया हुआ वचन याद आया।
अर्जुन ने बार-बार कुलदेवी से विनती की, लेकिन कुलदेवी ने कहा, अर्जुन अब मैं यही पर इस शिला के रूप में ही रहूंगी। तब से आज तक पांडवों की कुलदेवी आज भी शिला के रूप में ही पूजी जाती है।
ज्ञात हो कि बहरारे वाली मां के मंदिर में एक अद्भुत जलकुंड है। इस कुंड का जल कभी भी नहीं सूखता। मान्यता है कि जो भी भक्तजन इस जल को ग्रहण करते हैं, उनके सभी पाप-दोष दूर हो जाते हैं। साथ ही उसके समस्त मनोरथों की भी पूर्ति होती है।