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छतरपुर

आधुनिक दौर में फीकी पड़ी तांबा-पीतल उद्योग की चमक, 80 फीसदी कारीगरों ने कारोबार छोड़ा

आधुनिकता के इस दौर में लोग आकर्षक प्लास्टिक से बने बर्तनों को अपने जीवन में शामिल कर रहे हैं, जिसके चलते बाजारों से पीतल और तांबे के बर्तन विलुप्त होते जा रहे हैं। जबकि तांबे के बर्तनों को स्वास्थ्य के लिहाज से लाभदायक माना जाता रहा है, बावजूद इसके आज के दौर में लोग इन्हें नजरअंदाज कर खुद के स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण से भी खिलवाड़ कर रहे हैं।

छतरपुरSep 16, 2024 / 10:48 am

Dharmendra Singh

utensil

पीतल की बर्तन बनाते हुए

छतरपुर. आधुनिकता के इस दौर में लोग आकर्षक प्लास्टिक से बने बर्तनों को अपने जीवन में शामिल कर रहे हैं, जिसके चलते बाजारों से पीतल और तांबे के बर्तन विलुप्त होते जा रहे हैं। जबकि तांबे के बर्तनों को स्वास्थ्य के लिहाज से लाभदायक माना जाता रहा है, बावजूद इसके आज के दौर में लोग इन्हें नजरअंदाज कर खुद के स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण से भी खिलवाड़ कर रहे हैं। एक समय पर छतरपुर की शान कही जाने वाली ताम्र शिल्प कला की धरोहर अब लुप्त होने की कगार पर है। बाजार में पीतल-तांबे बर्तनों की मांग कम होने और सरकार की बेरुखी के चलते कारीगरों ने बर्तन बनाने का काम लगभग बंद कर दिया है।

कई राज्यो से आते थे कारीगर


दो दशक पहले तक देश के विभिन्न राज्यों के ताम्र शिल्पी छतरपुर आकर बर्तन बनाने का काम करते थे लेकिन आज इन कारीगरों को इस व्यापार से आजीविका चलाने में भारी कठिनाई हो रही है। छतरपुर में कई ऐसे निपुण ताम्र शिल्पी रहे हैं जिनके द्वारा बनाए गए बर्तनों की मांग न केवल बुंदेलखंड बल्कि पूरे देश में हुआ करती थी लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध ने न केवल इन ताम्र शिल्पियों को बेरोजगार कर दिया है बल्कि इस व्यापार को भी लुप्त होने की कगार पर पहुंचा दिया है। तांबे और पीतल के व्यापार से जुड़े लोगों की मानें तो छतरपुर के लगभग 80 फीसदी कारीगरों ने यह व्यापार बंद कर दिया है। तांबा-पीतल के बर्तन बनाए जाने के लिए मशहूर छतरपुर के तमराई मोहल्ले में जहां खासी रौनक रहती थी, वहां की गलियां आज सूनी पड़ी हैं। यहां रहने वाले दर्जनों परिवारों की आजीविका का प्रमुख स्रोत तांबे-पीतल के बर्तन बनाने का कार्य होता था लेकिन सरकार की बेरुखी और आधुनिकता का चोला पहने लोगों की मानसिकता ने उन्हें बेरोजगार कर दिया है।

तांबे और पीतल के बर्तनों का इस्तेमाल स्वास्थ्य के लिए गुणकारी


भारत के चंडीगढ़ शहर में किए गए एक वैज्ञानिक शोध के अनुसार तांबे के पात्रों का इस्तेमाल करने से शरीर में कॉपर की कमी पूरी होती है और तांबे के बर्तन में रखा गया पानी सबसे शुद्ध होता है, जिसका सेवन करने से डायरिया, पीलिया, डिसेंट्री, पेट दर्द, गैस, एसिडिटी, थायराइड जैसी बीमारी नहीं होती। तांबे में एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण होता है, जिस कारण से शरीर में दर्द, ऐंठन और सूजन आने की समस्या नहीं होती। ऑर्थराइटिस की समस्या से निपटने के लिए भी तांबे के बर्तन में रखा पानी अत्याधिक फायदेमंद होता है। तांबे में मौजूद एंटी-ऑक्सीडेंट, कैंसर की बीमारी से लडऩे की क्षमता में वृद्धि करते हैं। इसी तरह पीतल के पात्रों के इस्तेमाल से भी शरीर को कई तरह के लाभ होते हैं।

छतरपुर में डेढ़ सैकड़ा से डेढ़ दर्जन बची कारीगरों की संख्या


तमराई मोहल्ला निवासी ऊदल ताम्रकार बताते हैं कि लंबे समय से वे तांबे और पीतल के बर्तन बनाने का काम करते आ रहे हैं लेकिन वर्तमान में तांबा-पीतल की कीमतों में भारी उछाल आने के कारण लोगों ने इन धातुओं के बर्तनों का इस्तेमाल करना बंद कर दिया है। इसके अलावा सरकार द्वारा तांबे और पीतल पर वैट टैक्स बढ़ा दिया गया है, जिस कारण से दोनों धातुएं महंगी हो गई हैं। जो पीतल पहले 280 रुपए प्रति किलोग्राम मिलता था वह आज 550 रुपए प्रति किलोग्राम हो गया है। यही सब मुख्य कारण हैं जिससे तांबे और पीतल का व्यापार लुप्त होने की कगार पर है। ऊदल ताम्रकार के मुताबिक शहरी इलाकों में तांबे और पीतल के बर्तन पूरी तरह प्रचलन से बाहर चुके हैं, सिर्फ ग्रामीण अंचलों के कुछ लोग ही तांबे और पीतल के बर्तन खरीदते हैं। ऊदल ताम्रकार ने बताया कि एक समय था जब छतरपुर के तमराई मोहल्ले में बनने वाले पीतल और तांबे के बर्तनों की पूरे देश में मांग होती थी लेकिन वर्तमान में देश तो दूर जिले में भी इन बर्तनों को कम लोग खरीद रहे हैं। उन्होंने बताया कि पहले तमराई मोहल्ला के करीब डेढ़ सैकड़ा कारीगर बर्तन बनाते थे लेकिन वर्तमान में मात्र डेढ़ दर्जन कारीगर ही बर्तन बना रहे हैं, वह भी बहुत कम मात्रा में।

दो-तीन वर्ष बाद छतरपुर में समाप्त हो जाएगा कारोबार


तमराई मोहल्ला के बर्तन कारीगर संजय ताम्रकार बताते हैं कि जिस गति से कारोबार कम हो रहा है उससे अंदाजा है कि अगले दो से तीन वर्षों बाद छतरपुर में यह कारोबार पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। संजय ताम्रकार ने बताया कि पहले छतरपुर के अलावा ग्वालियर, झांसी और मऊरानीपुर में यह कारोबार होता था लेकिन इन सभी स्थानों पर कारोबार बंद हो चुका है। मात्र छतरपुर में ही कुछ लोग तांबा-पीतल के बर्तन बनाते हैं लेकिन मांग कम होने के कारण यह लोग भी व्यापार बंद करने का मन बना चुके हैं। संजय ताम्रकार के मुताबिक नई पीढ़ी का रुझान इस व्यापार की ओर नहीं है जिसका कारण तांबा-पीतल के महंगे दाम और बाजार में इन बर्तनों की मांग का कम होना है।

ताम्र शिल्प कला को सहेजने की जरूरत


ताम्रकार समाज के जिला उपाध्यक्ष और बर्तन व्यापारी अभिषेक ताम्रकार ने बताया कि एक दौर था तब देश के अलग-अलग प्रांतों के ताम्र शिल्पी काम की तलाश में छतरपुर आते थे, और आज वह समय आ गया है जब स्थानीय ताम्र शिल्पी भी अपने कारोबार बंद कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि पहले छतरपुर में बने बर्तनों का बुंदेलखंड सहित पूरे देश में निर्यात होता था लेकिन जैसे-जैसे इन धातुओं की महंगाई बढ़ी, वैसे-वैसे लोगों का तांबा-पीतल के बर्तनों से मोह भंग होता गया। सबसे पहले लोग तांबे के पात्रों का इस्तेमाल दैनिक कार्यों में करते थे, इसके बाद जब तांबे की कीमतें बढ़ीं तो लोगों ने पीतल के पात्रों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। इसी तरह पीतल के बाद लोगों ने स्टील का और उसके बाद फाइबर (प्लास्टिक) के बर्तनों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। अभिषेक ताम्रकार ने कहा कि चूंकि सरकार भी ताम्र शिल्प कला को सहेजने का प्रयास नहीं कर रही है, इसलिए यह कारोबार और अधिक तेजी से लुप्त हो रहा है, यदि सरकार इस दिशा में प्रयास करे तो विलुप्त होती कला बची रहेगी। उन्होंने बताया कि सरकार इस कारोबार को बचाने की बजाय इस पर लगातार टैक्स बढ़ा रही है जिस कारण से युवा पीढ़ी का रुझान इस कारोबार की ओर नहीं है। उन्होंने बताया कि पहले सरकार तांबे और पीतल पर 5 फीसदी टैक्स लेती थी, जो वर्तमान में साढ़े 12 फीसदी लिया जा रहा है।

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