संजीव कुमार ( Sanjeev Kumar ) की लाजवाब अदाकारी वाली ‘खिलौना’ (1970) ( Khilona Movie ) भी गुलशन नंदा के उपन्यास पर बनी थी। इस फिल्म का 2020 स्वर्ण जयंती वर्ष है। ‘खिलौना’ संजीव कुमार के कॅरियर का नया मोड़ साबित हुई। इससे पहले तक उनकी ऊर्जा बी और सी ग्रेड की फिल्मों में ज्यादा खर्च हुई। ‘खिलौना’ से वे असीम संभावनाओं वाले समर्थ अभिनेता के तौर पर उभरे। चंदर वोहरा के निर्देशन में बनी इस फिल्म में उन्होंने रईस खानदान के ऐसे नौजवान का किरदार अदा किया, जो प्रेमिका के बिछोह में मानसिक संतुलन खो देता है। उसकी देखभाल के लिए एक तवायफ (मुमताज) को लाया जाता है। धीरे-धीरे उसकी हालत सुधरने लगती है, लेकिन क्या पूरी तरह स्वस्थ होने पर वह तवायफ को याद रख पाएगा? कई साल बाद इसी तरह का क्लाइमैक्स श्रीदेवी और कमल हासन की ‘सदमा’ में देखने को मिला था।
सत्तर के दशक की शुरुआत में घरेलू किस्म की फिल्में ज्यादा पसंद की जाती थीं। तब तक न अमिताभ बच्चन की आंधी शुरू हुई थी और न पर्दे पर वैसा खून-खराबा दिखाया जाता था, जो ‘शोले’ के बाद हर मसाला फिल्म की जरूरत बन गया। गीत-संगीत का वह सुनहरा दौर था। आनंद बख्शी के गीत और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का संगीत ‘खिलौना’ की कहानी में पानी में चंदन की तरह घुले-मिले हैं। मोहम्मद रफी की आवाज वाला ‘खिलौना जानकर तुम तो मेरा दिल तोड़ जाते हो’ तब भी खूब चला था, आज भी लोकप्रिय है। जब यह फिल्म सिनेमाघरों में आई थी, पर्दे पर संजीव कुमार से इस गीत की ये पंक्तियां सुनकर जाने कितनों की आंखें भीगी थीं- ‘मेरे दिल से न लो बदला जमाने भर की बातों का/ ठहर जाओ सुनो, मेहमान हूं मैं चंद रातों का/ चले जाना, अभी से किसलिए मुंह मोड़ जाते हो।’ फिल्म के दो और गाने ‘खुश रहे तू सदा ये दुआ है मेरी’ और ‘सनम तू बेवफा के नाम से मशहूर हो जाए’ भी काफी चले थे।
‘खिलौना’ को सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री (मुमताज) के फिल्मफेयर अवॉर्ड से नवाजा गया था। संजीव कुमार किरदार में जान फूंकने के बावजूद इस अवॉर्ड से महरूम रहे। कैफी आजमी का मिसरा याद आता है- ‘यही होता है तो आखिर यही होता क्यों है?’