फिल्मों में राजिन्दर सिंह बेदी ‘दस्तक’ से काफी पहले सक्रिय थे। उन्होंने दिलीप कुमार की ‘दाग’, ‘देवदास’, ‘मधुमति’, सोहराब मोदी की ‘मिर्जा गालिब’, हृषिकेश मुखर्जी की ‘अनुराधा’, ‘अनुपमा’ और ‘सत्यकाम’ के संवाद लिखे। उनकी कहानी पर बलराज साहनी और निरुपा रॉय को लेकर ‘गरम कोट’ (1955) बनी। ‘दस्तक’ के बाद बतौर निर्देशक उन्होंने तीन फिल्में और बनाईं- ‘फागुन’, ‘नवाब साहिब’ और ‘आंखिन देखी।’ अपना उपन्यास ‘एक चादर मैली-सी’ उनके दिल के ज्यादा करीब था, जिसे साहित्य अकादमी अवॉर्ड से नवाजा गया। बेदी ने 1960 में धर्मेंद्र और गीता बाली को लेकर इस पर फिल्म बनाने का काम शुरू किया, लेकिन गीता बाली के देहांत की वजह से यह फिल्म नहीं बन सकी। इस उपन्यास पर 1978 में पाकिस्तान में ‘मुट्ठी भर चावल’ नाम से फिल्म बनी। भारत में बेदी का अधूरा सपना उनके देहांत के दो साल बाद पूरा हुआ, जब सुखवंत ढड्डा ने हेमा मालिनी और ऋषि कपूर को लेकर ‘एक चादर मैली-सी’ (1986) बनाई।
राजिन्दर सिंह बेदी कभी ठहाकों और कहकहों के लिए मशहूर थे, लेकिन फिल्मकार बेटे नरेंद्र बेदी (जवानी-दीवानी, सनम तेरी कसम) के देहांत ने उन्हें तोड़ दिया। उम्र के आखिरी पड़ाव में सम्मेलनों, गोष्ठियों में वे खोए-खोए नजर आते थे और अपनी कहानियों पर चर्चा के दौरान भी उनकी आंखें कहीं और भटकती रहती थीं- ‘वही है जिंदगी लेकिन ‘जिगर’ ये हाल है अपना/ कि जैसे जिंदगी से जिंदगी कम होती जाती है।’