‘बिछुड़े और मिले’ का सदाबहार फार्मूला
निर्देशक विजय आनंद के लिए, जो ‘गाइड’, ‘तीसरी मंजिल’ और ‘ज्वैल थीफ’ बना चुके थे, मसालेदार ‘जॉनी मेरा नाम’ बनाना अलग तरह का अनुभव था। उन्होंने ‘बिछुड़े और मिले’ के उस फार्मूले पर इसकी कहानी बुनवाई, जिस पर चालीस के दशक में अशोक कुमार की ‘किस्मत’ बन चुकी थी। यानी दो भाइयों की कहानी, जो बचपन में बिछुड़ जाते हैं। एक पुलिस अफसर बनता है, दूसरा मुजरिम। ‘जॉनी मेरा नाम’ में यह किरदार देव आनंद और प्राण ने अदा किए। इस फिल्म की धमाकेदार कामयाबी के बाद ‘बिछुड़े और मिले’ पर फिल्मों की बाढ़-सी आ गई- ‘मेला’, ‘धरम वीर’, ‘यादों की बारात’, ‘अमर अकबर एंथॉनी’ आदि।
गानों का शानदार फिल्मांकन
हिन्दी सिनेमा में गानों के फिल्मांकन के मामले में गुरुदत्त और राज कपूर की तरह विजय आनंद को भी मास्टर माना जाता था। ‘गाइड’ के क्लासिक गानों को याद कीजिए, जिनमें से ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’ में मटके फोड़तीं वहीदा रहमान की उमंग चरम पर नजर आती है या ‘तेरे घर के सामने’ में ‘दिल का भंवर करे पुकार’, जो कुतुब मीनार की सीढिय़ां उतरते देव आनंद और नूतन पर फिल्माया गया। ‘जॉनी मेरा नाम’ में भी गानों का फिल्मांकन कमाल का है। खासकर ‘पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले’ में एक के बाद एक इमारत में जितनी खिड़कियां दिखाई गईं, वैसी सूझ-बूझ विजय आनंद का खासा थी। यह सूझ-बूझ ‘नफरत करने वालों के सीने में प्यार भर दूं’ और ‘छुप-छुप मीरा रोए’ में भी छन-छन कर झिलमिलाती है।
‘मेरा नाम जोकर’ भी 1970 में आई थी
‘जॉनी मेरा नाम’ के साथ तनातनी के कुछ किस्से भी जुड़े हुए हैं। यह तनातनी गुलशन राय और राज कपूर के बीच हुई थी। राज कपूर उन दिनों ‘मेरा नाम जोकर’ को सिनेमाघरों में उतारने की तैयारी कर रहे थे। वे यह जानकर हैरान-परेशान हुए कि उनकी फिल्म के नाम से मिलते-जुलते नाम वाली एक फिल्म बनाई जा चुकी है। यह तनातनी वैसी ही रही, जैसी कई साल बाद ‘खलनायक’ और ‘खलनायिका’ के नामों को लेकर हुई। बहरहाल, ‘जॉनी मेरा नाम’ के कुछ हफ्तों बाद ‘मेरा नाम जोकर’ सिनेमाघरों में पहुंची और इसकी नाकामी ने राज कपूर का सपना चूर-चूर कर दिया। इसे काफी बाद में क्लासिक फिल्म का दर्जा मिला, लेकिन अगर इसे 1970 में ही कारोबारी कामयाबी मिलती, तो शायद आगे राज कपूर के सिनेमा की दिशा और दशा कुछ और होती।