जब जितेंद्र को ये फिल्म ऑफर हुई तो वो बहुत खुश हुए। उन्हें लगा कि फिल्म में उन्हें लीड रोल ऑफर हुई है, मगर उनकी ये खुशी ज्यादा देर नहीं टिक पाई। क्योंकि उन्हें जब पता चला कि फिल्म में उन्हें हीरोइन के बॉडी डबल का रोल करना है तो पहले तो वो अवाक रह गए, लेकिन बाद में मान गए। वैसे भी उन दिनों उनके पास कोई काम नहीं था और उन्हें पैसों की जरूरत थी, ऐसे में उन्होंने रोल के लिए हां कर दिया। और एक रीजन ये भी था कि वो वी शांताराम जैसे इतने बड़े डायरेक्टर के साथ काम करने का मौक़ा नहीं छोड़ना चाहते थे और उनके साथ ये उनकी पहली फिल्म भी थी। इस बात का जिक्र जितेंद्र ने ‘द कपिल शर्मा शो’ में किया है, उन्होंने बताया, “मैं जूनियर आर्टिस्ट हूं ‘सेहरा’ पिक्चर में और शांताराम जी की चमचागिरी करनी है, कुछ भी करने को रेडी हूं। तो बीकानेर में डुप्लीकेट नहीं मिल रहा था। आप यकीन नहीं करेंगे मैंने संध्या जी का डुप्लीकेट प्ले किया। उस जमाने में कपड़े भी वैसे और शांताराम जी तो ऑथेंटिक फिल्ममेकर थे न तो मुझे ऑथेंटिक लड़की बनाया।”
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तो इस तरह फिल्म ‘नवरंग’ के लिए जीतेंद्र ने अभिनेत्री संध्या के बॉडी डबल की तरह काम किया , फिल्म रिलीज हुई और काफी हिट रही लेकिन जितेंद्र के करियर को इससे कोई फायदा नहीं हुआ। जितेंद्र का संघर्ष इसके बाद भी चलता रहा, पहली फिल्म के बाद भी तकरीबन पांच सालों तक उन्हें कोई फिल्म नहीं मिली और वो उसी तरह काम की तलाश में भटकते रहे। 1964 में जाकर जितेंद्र को फिल्म मिली ‘गीत गाया पत्थरों ने’, मगर ये फिल्म फ़्लॉप हो गई। आखिरकार उन्हें एक फिल्म मिली जिसकी बदोलत वो एक सुपरस्टार बन गए, वो फिल्म थी 1967 में आई ‘फर्ज़’। इस फिल्म ने ना सिर्फ रिकॉर्ड सफलता पाई बल्कि इस फिल्म में जितेंद्र द्वार पहने गए सफेद जूते और टी-शर्ट उनका ट्रेडमार्क बन गए जिसे उनकी ‘कारवां’ और ‘हमजोली’ जैसी फिल्मों में भी फॉलो किया गया।
इसके बाद उन्होंने एक से बढ़कर एक फिल्में दी, जिनमें ‘हमजोली’, ‘परिचय’, ‘खुशबू’, ‘प्रियतमा’, ‘धरम वीर’, ‘जस्टिस चौधरी’, ‘तोहफा’, ‘हैसियत’, ‘आदमी खिलौना है’, ‘अपना बना लो’, ‘रक्षा’, ‘फर्ज और क़ानून’, ‘धर्म कांटा’, और ‘हिम्मतवाला’ जैसी फिल्में शामिल हैं।
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