सिनेमाघरों में भीड़ खींचती थीं सदाना की मूवीज
साठ से अस्सी के दशक तक फिल्म इंडस्ट्री में बृज सदाना का यह रुतबा था कि उस दौर के बड़े-बड़े सितारे उनके इर्द-गिर्द चक्कर काटते थे। उनकी ‘दो भाई’ (अशोक कुमार, जीतेंद्र, माला सिन्हा) की कहानी सलीम खान (सलमान खान के पिता) ने लिखी थी। उनकी ‘ये रात फिर न आएगी’, ‘यकीन’ (गर तुम भुला न दोगे), ‘विक्टोरिया नं. 203’, ‘चोरी मेरा काम’, ‘प्रोफेसर प्यारेलाल; और ‘मर्दों वाली बात’ जैसी मसाला फिल्में कभी सिनेमाघरों में भीड़ खींचती थीं। फिल्मों में कामयाबी प्लास्टिक की उस रस्सी की तरह है, जो किसी भी समय हाथ से फिसल सकती है।
बेटे की सालगिरह पर चलाईं गोलियां
बृज सदाना के हाथ से भी कामयाबी फिसलने लगी थी। ‘बॉम्बे 405 माइल्स’ (विनोद खन्ना, जीनत अमान), ‘ऊंचे लोग’ (राजेश खन्ना, सलमा आगा) और ‘मगरूर’ (शत्रुघ्न सिन्हा, विद्या सिन्हा) की नाकामी के बाद वे लोग भी उनसे कन्नी काटने लगे थे, जो कभी उनकी खुशामद का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते थे। सुर्खियों का मौसम गुजरा तो बृज सदाना इंडस्ट्री के लिए भूली हुई दास्तान हो गए। इस दास्तान का बेरहम क्लाइमैक्स पत्नी और बेटी की हत्या के बाद आत्महत्या के रूप में सामने आया। आखिरी दिनों में वे बेहद चिड़चिड़े हो गए थे। शराब के नशे में कलह रोज की बात थी। बेटे की सालगिरह पर जब उन्होंने गोलियां चलाईं, तब भी वे नशे में थे। बृज सदाना की पत्नी सईदा खान किसी जमाने में अभिनेत्री हुआ करती थीं। दोनों ने प्रेम विवाह किया था। बृज सदाना की हताशा और कुंठाओ ने न प्रेम रहने दिया, न विवाह।
पिता की तरह निर्माण-निर्देशन में आजमाया हाथ
अपने माता-पिता और बहन के इस त्रासद अंत के दो साल बाद कमल सदाना ने बतौर अभिनेता फिल्मी सफर का आगाज किया। वे काजोल की पहली फिल्म ‘बेखुदी’ (1992) के नायक थे। ‘रंग’, ‘हम सब चोर हैं’, ‘बाली उमर को सलाम’, ‘काली टोपी लाल रूमाल’, ‘हम हैं प्रेमी’ और ‘अंगारा’ समेत करीब डेढ़ दर्जन फिल्मों के बाद भी जब उनके कॅरियर में रफ्तार नहीं आई, तो वे अपने पिता की तरह निर्माण-निर्देशन की तरफ मुड़ गए। वे पिता की एक्शन-कॉमेडी ‘विक्टोरिया नं. 203’ का रीमेक पेश कर चुके हैं। रीमेक मूल फिल्म के मुकाबले निहायत कमजोर था, इसलिए न माया मिली न राम वाला मामला रहा।