हृषिकेश मुखर्जी की तरह असित सेन का सिनेमा भी भावनाओं और संवेदनाओं का सिनेमा है। वे अपनी फिल्मों में गीत-संगीत को इस तरह बुनते थे कि कहानी का हिस्सा बन जाता था। उनकी ‘सफर’ (राजेश खन्ना, शर्मिला टैगोर) का जिक्र होता है तो ‘जिंदगी का सफर है ये कैसा सफर’ या ‘हम थे जिनके सहारे’ या ‘जीवन से भरी तेरी आंखें’ बरबस याद आ जाते हैं। ‘खामोशी’ (वहीदा रहमान, राजेश खन्ना) की बात चलेगी तो ‘वो शाम कुछ अजीब थी’, ‘तुम पुकार लो’ और ‘हमने देखी है उन आंखों की महकती खुशबू’ जरूर याद आएंगे। उनकी ‘ममता’ (सुचित्रा सेन, धर्मेंद्र) की कहानी भले लोगों ने बिसरा दी हो, ‘रहें न रहें हम महका करेंगे’, ‘छिपा लो यूं दिल में प्यार मेरा कि जैसे मंदिर में लौ दीये की’ और ‘रहते थे कभी जिनके दिल में’ को भुलाना मुश्किल है। यही मामला ‘अनोखी रात’ (संजीव कुमार, जाहिदा) के ‘ओह रे ताल मिले नदी के जल में’, ‘महलों का राजा मिला’ और ‘मिले न फूल तो कांटों से दोस्ती कर ली’ के साथ है। फिल्म का नाम लो तो गीत गुनगुनाहट बनकर होठों पर आते हैं।
निर्देशक असित सेन को बांग्ला फिल्म ‘उत्तर फाल्गुनी’ (‘ममता’ इसी का रीमेक थी) के लिए नेशनल अवॉर्ड और ‘सफर’ के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड से नवाजा गया। उनकी ‘खामोशी’ मार्मिक कविता जैसी फिल्म है, जिसमें नायिका के त्याग, शालीनता और गरिमा को गहरे आयाम के साथ पेश किया गया। असित सेन की दूसरी उल्लेखनीय फिल्मों में ‘परिवार’, ‘शराफत’, ‘बैराग’ (इसमें दिलीप कुमार के तीन किरदार थे) और ‘अन्नदाता’ शामिल हैं। कोलकाता में 25 अगस्त, 2001 को जिंदगी का सफर थमने से काफी पहले वे फिल्मों से अलग हो गए थे।