साथ ही अन्य फसलों के मुकाबले पपीते की खेती में मेहनत भी कम होती है। पपीता कम समय में फल देने वाला पौधा है। इससे कम समय में अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है। पपीते के पौध लगाने से पहले एक कतार में गड्ढे तैयार किए जाते हैं। इनमें जून व जुलाई में पौध लगानी चाहिए। यदि पानी की समुचित व्यवस्था हो तो सितम्बर से अक्टूबर तथा फरवरी से मार्च तक पपीते के पौधे लगाने चाहिए।
श्रवणराम ने बताया कि पपीते के पौधों में वर्मी कम्पोस्ट से तैयार खाद डालकर पपीते की फसल ले रहे हैं। एक पौधे से 40 से 50 किलोग्राम तक पपीते की पैदावार मिलती है। इस नवाचार को लेकर आस-पास के किसान भी प्रभावित हो रहे हैं तथा उन्नत खेती की जानकारी लेने पहुंच रहे हैं। उन्होंने सीकर में पपीते की खेती के बारे में जाना तो काफी प्रभावित हुए। इसके बाद पपीते की खेती करने का निर्णय किया। वे हर पौधे की बारीकी से जांच भी करते हैं व कृषि विशेषज्ञ से सलाह भी लेते हैं।
शतावरी को भाया थार, 15 कृषकों ने की शुरुआत
थार की धरती पर अब ताकत बढ़ाने वाले औषधीय पौधे तैयार हो रहे हैं। बाड़मेर जिले के किसान जीरा, इसबगोल, अनार और खजूर उत्पादन में अव्वल हैं। ये नए प्रयोग कर विशेष करने का जुनून रखते हैं। इसी कड़ी में किसानों ने शतावरी नामक औषधीय पौधे की फसल भी बोई है।
इन पौधों का उपयोग दवाओं में होता है, जिसके चलते यहां के किसानों से बहुराष्ट्रीय कंपनियां एमओयू भी कर चुकी हैं। किसानों को लाखों रुपयों की आय होने की उम्मीद है। फिलहाल जिले में कीटनोद, बुड़ीवाड़ा, गुड़ामालानी के १५ किसान प्रायोगिक तौर पर शतावरी का उत्पादन कर रहे हैं, जिसमें उन्हें अच्छे परिणाम भी मिले हैं।
एक हैक्टेयर में शतावरी के 1800-2000 पौधे लगते हैं। जुलाई-अगस्त में बुवाई के डेढ़-दो साल बाद पहली फसल तैयार हो जाती है। यह नई जड़ें फैलाती है, जिससे कम से कम तीन बार जड़ें तैयार होती है। एेसे में एक बार की बुवाई के बाद किसान को तीन बार कमाई होती है। इसकी खेती में पानी की जरूरत भी कम होती है।