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सौतन आई तो पति ने शादी के 43 साल बाद घर से निकाला, हक मांगा तो मिला तीन तलाक, यही है शाहबानो की कहानी

triple talaq: पांच बच्चों के साथ शाहबानो के पति 60 साल की उम्र में घर से कर दिया था बाहर

भोपालJul 30, 2019 / 09:00 pm

Muneshwar Kumar

triple talaq
भोपाल. ट्रिपल तलाक ( triple talaq ) के खिलाफ आवाज उठाने वाली भारत की पहली महिला शाहबानो ( shahbano story ) की वजह ही आज करोड़ों मुस्लिम महिलाएं राहत की सांस ले रही होंगी। राज्यसभा से बिल पास होने के बाद ट्रिपल तलाक से उन्हें आजादी मिल गई है। लेकिन क्या आपको पता है कि शाहबानो ने इसके लिए कितने दर्द क्षेले हैं। पति ने उम्र के उस पड़ाव पर उनका साथ छोड़ दिया था, जब उन्हें सहारे की जरूरत थी।
राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद मुस्लिम महिलाओं को तीन तला से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाएगी। आइए हम आपको उस महिला की कहानी बताते हैं, जिसने मुस्लिम महिलाओं के अभिशाप तीन तलाक के खिलाफ आवाज उठाई थी। उस महिला का नाम शाहबानो था। वह मध्यप्रदेश की इंदौर में की रहने वाली थी। पति बड़े वकील थे, विदेश से वकालत की पढ़ाई कर आए थे।
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शादी के 43 साल बाद घर से निकाला
तीन तलाक मुस्लिम धर्म में वर्षों पुरानी परंपरा हैं। शाहबानो से पहले न जाने कितनी महिलाएं इसकी शिकार हुईं। तमाम दर्द को क्षेलते हुए वह धर्म की बेड़ियों में जकड़ी रहीं। मगर किसी ने कभी आवाज नहीं उठाई। धर्म की दीवार तले दबे जबान को शाहबानो ने आवाज दी। जब शादी के 43 साल बाद इंदौर के मशहूर वकील मोहम्मद अहमद खान ने अपनी पत्नी शाहबानो को 1975 में पांच बच्चों के साथ घर से निकाल दिया।
बीच-बीच में देते थे रकम
शाहबानो पति के घर के निकल बच्चों के साथ अलग रहने लगीं। बच्चों की परवरिश के लिए अहमद खान कुछ रकम शाहबानो को दिया करते थे। लेकिन शाहबानो अपनी शौहर से हर महीने गुजारा-भत्ता मांग रही थीं। लेकिन इसके लिए वकील मोहम्मद अहमद खान तैयार नहीं थे। इसे लेकर शाहबानो और उनके बीच झगड़ा होता रहता था।
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दिया तलाक
दोनों के बीच गुजारा भत्ता को लेकर तकरार जारी था। इसी बीच 6 नवंबर 1978 को शाहबानो के शौहर मोहम्मद अहमद खान ने उन्हें तीन तलाक देकर हमेशा के लिए रिश्ता ही खत्म कर लिया। इस्लामिक कानून के अनुसार तीन तलाक के तीन महीने बाद ही पति-पत्नी का रिश्ता खत्म माना जाता है। इसलिए तीन महीने तक तलाकशुदा पत्नी की देखभाल का जिम्मा पति का ही होता है। साथ ही मेहर को एक तय रकम देनी होती है। वो काम वकील मोहम्मद अहमद खान कर चुके थे।
सुप्रीम कोर्ट गईं शाहबानो
इसके बाद शाहबानो के पास कोई चार नहीं बचा था। तलाक के बाद वह सुप्रीम कोर्ट गईं। वहां उनकी याचिका पर सुनवाई शुरू हो गई। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई पांच जजों की बेंच कर रही थी। सात साल बाद यानी 23 अप्रैल 1985 को चीफ जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने अपना फैसला शाह बानो के पक्ष में सुना दिया। कोर्ट ने अपने ऑर्डर में कहा कि मोहम्मद अहमद खान अपनी पूर्व बेगम को हर महीने पांच सौ रुपये का गुजारा भत्ता दें।
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कई लोग हो गए थे खफा
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से शाहबानो की बड़ी जीत हुई थी। लेकिन कुछ लोगों को इससे मिर्ची लग गई थी। मुस्लिम धर्म के लोगों ने शरीयत कानून का हवाला देकर इसका विरोध शुरू कर दिया। 1973 में बने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरजोर तरीके से विरोध कर रही थी। सरकार इनके विरोध के आगे झुक गई।
राजीव गांधी सरकार की वजह से नहीं मिला हक
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जब इसका विरोध कर रही थी, तब केंद्र में राजीव गांधी की सरकार थी। राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में आकर मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 पारित कर दिया। इस अधिनियम के जरिए सर्वोच्च न्यायलय के फैसले को पलट दिया।
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ब्रेम हैमरेज से हुई मौत
इस फैसले के बाद तीन तलाक से पीड़ित महिलाओं में खुशी की लहर है। लेकिन इसे देखने के लिए शाह बानो नहीं हैं। ढलती उम्र की वजह से वह बीमार रहने लगी थीं। बताया जाता है कि पति से तलाक के बाद ही उनकी सेहत बिगड़ने लगी। 1992 में ब्रेन हैमरेज से शाह बानो की मौत हो गई।

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