1978 में जब शाहबानो तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गईं, तब वो 62 साल की थीं। पति ने शौतन की वजह से उन्हें छोड़ दिया था। पहले कुछ गुजरा भत्ता दे दिया करता था। लेकिन बाद में शौहर ने सब देना बंद कर दिया। मामला कोर्ट में चल रहा था। सुप्रीम कोर्ट ने 23 अप्रैल 1985 को चीफ जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने अपना फैसला शाह बानो के पक्ष में दिया। सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद अहमद खान को अपनी पूर्व बेगम को हर महीने पांच सौ रुपये का गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का मुस्लिम संगठनों ने विरोध करना शुरू कर दिया। 1973 में बने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरजोर विरोध शुरू कर दिया। सरकार इनके विरोध के आगे झुक गई। इसके बाद सरकार पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप भी लगा।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जब इसका विरोध कर रही थी, तब केंद्र में राजीव गांधी की सरकार थी। राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में आकर मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 पारित कर दिया। इस अधिनियम के जरिए सर्वोच्च न्यायलय के फैसले को पलट दिया।
इस फैसले के बाद तीन तलाक से पीड़ित महिलाओं में खुशी की लहर है। लेकिन इसे देखने के लिए शाहबानो नहीं हैं। ढलती उम्र की वजह से वह बीमार रहने लगी थीं। बताया जाता है कि पति से तलाक के बाद ही उनकी सेहत बिगड़ने लगी। 1992 में ब्रेन हैमरेज से शाहबानो की मौत हो गई।