यह हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि मध्यप्रदेश की राजनीति में मुख्यमंत्री की कुर्सी भले ही अब तक सिंधिया परिवार से दूर बनी रही हो, लेकिन यह भी सच्चाई है कि मप्र के 64 सालों के इतिहास में इस परिवार ने कई बार किंगमेकर की भूमिका निभाई है।
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वहीं इस समय सियासी घमासान के बीच राजमाता विजयराजे और स्व. माधवराव के बाद अब इस परिवार की तीसरी पीढ़ी के ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रदेश के सियासी कैनवास पर बदलाव की नई लकीरें खींचने की तैयारी में हैं।
60-70 के दशक से हुई निर्णायक हस्तक्षेप की शुरुआत…
भोपाल के सत्ताकेंद्र में रहे ग्वालियर के इस पुराने राजपरिवार के निर्णायक हस्तक्षेप की शुरुआत 60-70 के दशक से तब से हुई, जब कांग्रेस के खांटी नेता द्वारका प्रसाद मिश्रा मुख्यमंत्री पद पर थे। उस वक्त राजमाता विजयराजे सिंधिया ग्वालियर से लोकसभा की कांग्रेस सांसद थीं। एक ही दल में होने के बावजूद दोनों ही नेताओं के बीच मतभेद गहरे होते चले गए।
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इस मतभेद में ग्वालियर में छात्र आंदोलन ने भी घी का काम किया, जिसके चलते राजमाता सिंधिया करीब तीन दर्जन विधायकों को लेकर अलग हो गईं।इन सब के बाद सिंधिया परिवार के लिए किंगमेकर की भूमिका निभाने का मौका जनवरी 89 में एकबार फिर आया। इस समय राजीव गांधी माधवराव सिंधिया को केंद्र से प्रदेश की राजनीति में भेजकर मुख्यमंत्री बनाने का मन पक्का कर चुके थे, लेकिन स्व. अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह व शुक्लबंधुओं का खेमा माधव के नाम पर एकमत नहीं हो सका।
इस पर स्व. राजीव गांधी ने माधवराव सिंधिया से ही अपनी जगह दूसरा वैकल्पिक नाम मांगा और इस तरह मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री बन। मोतीलाल वोरा माधवराव के आगे नतमस्तक थे और उनकी सरकार को मोती—माधव एक्सप्रेस कहा जाता था।