…यह हमारी रोजी-रोटी
गुरुवार को शाम सात बजे सरपंच कपिल मेहरा सब्जी की दुकान पर बैठे थे। उन्होंने बताया कि गांव वालों ने उन पर विश्वास कर सरपंच बनाया है। कपिल के साथ उनके पिता भी सब्जी की दुकान पर थे। रात को जब दुकान का काम खत्म हो गया तो कपिल मेहरा यहां से सीधे पंचायत भवन पहुंचे और वहां बैठकर प्रधानमंत्री आवास योजना की फाइल देखी और गांव में पात्र हितग्राहियों की सूची तैयार कराई। ताकि गरीब लोगों को तत्काल प्रधानमंत्री आवास का लाभ दिलाया जा सके।
पेशा और जनप्रतिनिधि!
जनसेवा और पेशेगत सेवा का अनुपम उदाहरण पेश किया है सरपंच ने। अमूमन ऐसा बहुत कम होता है कि राजनीतिक पद मिलने के बाद भी कोई जनप्रतिनिधि अपने मूल पेशे से भी जुड़ा रहे। लोकतंत्र की प्राथमिक इकाई से जुड़े प्रतिनिधि हों या फिर सांसद या विधायक जीतते ही उनके हावभाव बदल जाते हैं।
जनसेवक की जगह उनका बर्ताव किसी क्षत्रप की तरह हो जाता है। राजधानी भोपाल की ग्राम पंचायतों के 17 पूर्व पंच सरपंचों पर भ्रष्टाचार के आरोप थे। केंद्र और राज्य सरकार से गांवों के विकास के लिए मिले फंड में इन्होंने गोलमाल किया। भ्रष्टाचार के मूल में पद, प्रतिष्ठा की गरिमा को बनाए रखने के लिए अनैतिक तरीके से धन कमाना था।
सरपंच का अपने काम धंधे के साथ जनसेवा से जुडऩा यह संदेश देता है कि निजी और पारिवारिक खर्चों के लिए अपने मूल पेशे से जुड़े रहना जरूरी है। उम्मीद है अन्य नेता भी इनसे सीख लेंगे।