रानी लक्ष्मीबाई को दिया पेंशन लालच
अंग्रेजी हुकूमत ने दत्तक पुत्र दामोदर को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया था। रानी की वीरता और साहस से डरे अंग्रेज लक्ष्मीबाई के खिलाफ हो गए। रानी को अपने आगे झुकाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने कई प्रयास किए। अंग्रेजों ने रानी को सालाना 60000 रुपए पेंशन तक का प्रस्ताव देकर लुभाने की कोशिश की थी। उनका कहना था कि पेंशन लेकर रानी झांसी का किला खाली कर दें और उन्हें सौंप दें। लेकिन रानी ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और संकल्प लिया कि झांसी को वो आजाद कराकर रहेंगी। उनकी आवाज को बुलंदी से गूंजते हुए आप आज भी महसूस कर सकते हैं। इन शब्दों में आपको रानी का अदम्य साहस आसानी से समझ आ जाएगा- ‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।’
ब्रिटिश सरकार ने दिया था महल छोड़ने का आदेश
ये किस्सा है मार्च 1854 का। इस दौरान रानी लक्ष्मीबाई से परेशान हुई ब्रिटिश सरकार ने रानी को महल छोड़ने का आदेश दिया था। लेकिन इस आदेश के विपरीत रानी ने निश्चय किया कि वे झांसी नहीं छोड़ेंगी। उन्होंने संकल्प भी लिया कि वे हर हाल में झांसी को आजाद कराकर रहेंगी। वीरता से वे आगे बढीं लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनके प्रयासों को विफल कर दिया।
अंग्रेजों के हमले के बाद रानी को छोड़ना पड़ा महल
1858 के इस किस्से के मुताबिक ब्रिटिश सरकार ने झांसी पर हमला बोल दिया। झांसी अब चारों ओर से घिरा था। लेकिन निडर और अदम्य साहस की धनी रानी ने तब भी अंग्रेजों के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया। पुरुष की पोशाक पहनी और अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बांधकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग के मैदान में उतर गई। दोनों हाथों में तलवार लिए घोड़े पर सवार झांसी की रानी का यही चित्र देखकर आज भी लोग हैरान हो जाते हैं और जोश से भर जाते हैं। लेकिन उस समय रानी को झांसी छोड़ना पड़ा। वे अपने दत्तक पुत्र और कुछ सहयोगियों के साथ वहां से निकल गईं। ये भी पढ़ें: Rani Laxmibai: झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की शादी का कार्ड, ऑरिजनल तस्वीर देखें रानी की दुर्लभ चीजें तब तांत्या टोपे से जा मिली रानी
1858 में झांसी छोड़कर निकली रानी तांत्या टोपे से जा मिलीं। लेकिन अंग्रेज और उनके चाटुकार भारतीय भी रानी की खोज में उनके पीछे लगे रहे।
रानी लक्ष्मीबाई की वीरता से डरे हुए थे अंग्रेज
1858 में तांत्या टोपे के साथ
ग्वालियर कूच करने वाली रानी लक्ष्मी बाई की वीरता और साहस ने अंग्रेजों के ऐसे छक्के छुड़ाए थे कि वो उन्हें हर हाल में झुकाना चाहते थे। इसी का परिणाम था कि देश के गद्दारों और अंग्रेजों ने रास्ते में ही रानी को घेर लिया। वीरता और साहस की मूर्ति रानी ने यहां भी युद्घ किया। 17 जून 1858 का युद्ध रानी लक्ष्मीबाई के साहस भरे जीवन का आखिरी दिन था। 18 जून 1858 को 30 साल की छोटी सी उम्र में आजादी की पहली भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना वीरगति को प्राप्त हो गईं। लेकिन उनके ये किस्से कहानियां और कविताएं आज भी गर्व से भर देती हैं।